किसी सुगठित एवं गुम्फित विचार अथवा भाव के विस्तार को 'पल्लवन' कहते है।
अनुभूति अथवा चिंतन के क्षणों में जब विचार उठते हैं, तब उनमें सूत्रात्मकता आ आती है। सरसरी दृष्टि से पढ़ने पर उसका सामान्य अर्थ-बोध भले हो जाए, किंतु सम्यक् अर्थ-बोध एवं अर्थ-विस्तार के लिए गहराई में उतरना पड़ता है। ज्यों-ज्यों हम उस गंभीर घाव करनेवाले नाविक के तीर जैसे वाक्य-खंड, वाक्य या वाक्य-समूह में डूबते हैं, त्यों-त्यों हम उसका मर्म समझने लगते हैं; गागर में सागर का रहस्य समझने लगते हैं।
संसार के जितने महान विचारक, चिंतक एवं लेखक हैं उनके वाक्य चिंतन के शिलीभूत शब्द-समूह होते हैं। बेकन, इमरसन, कार्लाइल, पं. रामचंद्र शुक्ल की उक्तियाँ सैक्रीन या होमियोपैथिक गोलियों की तरह रस-भरी तथा उच्च क्षमतावाली होती हैं।
अतः पल्लवन और कुछ नहीं, वरन् बीज से वृक्ष, बिंदु से वृत्त, कली से फूल अथवा लौ से आलोक-परिधि बना देने की सहज प्रक्रिया है। छोटे-से वाक्य या वाक्य खंड में जो विचार बंद पड़े हैं, उन्हें खोल देना, फैला देना, प्रसृत-विस्तृत कर देना है। छोटा सूत्रात्मक वाक्य फैलाकर एक लघु निबंध का रूप धारण कर लेता है।
हिन्दी में इसके लिए विस्तारण, वृद्धिकरण तथा अँग्रेजी में Amplification शब्द चलते हैं। पल्लवन संक्षेपण का ठीक विलोम है, क्योंकि संक्षेपण में संकोचन आवश्यक हैं, तो पल्लवन में विस्तार अपेक्षित है।
कम-से-कम शब्दों अथवा एक वाक्य में कहे अथवा लिखे गये भावों और विचारों में इतनी स्पष्टता नहीं रहती कि हर तरह के लोग उन्हें आसानी से समझ सकें। एक सधे लेखक का बड़ा गुण यह है कि वह कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बातें लिखता है। अँगरेजी में बेकन (Bacon) और हिन्दी में पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ऐसे ही गद्यलेखक थे। कविता में तो इस प्रकार के लेखक की गुंजाइश अधिक है। किन्तु, जब 'गागर में सागर'-जैसी चेष्टा की जाती है, तब उसमें साधारण लोगों के लिए अर्थ की स्पष्टता नहीं रह जाती। ऐसी स्थिति में विचार अथवा भाव के तार-तार को अलग कर 'तारतम्य' के साथ समझने के लिए एक कुशल व्याख्याता की आवश्यकता पड़ती है।
इतना ही नहीं, हिन्दी में ऐसी हजारों सूक्तियाँ और कहावतें प्रचलित है, जिनके अर्थ ऊपर से तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु उनका अर्थ-विस्तार करने पर उनके भाव पूरी तरह स्पष्ट हो जाते है। लेखन की इस क्रिया को हिन्दी में 'पल्लवन' कहते है। इसे हम अँगरेजी शब्दावली में 'Miniature essay' और हिन्दी में 'लघु निबन्ध' कह सकते है। इसमें मूल वाक्य में आये विचारसूत्रों को सही-सही अर्थ में पकड़ने की चेष्टा की जाती है। यहाँ यह देखा जाता है कि छात्र या व्याख्याता ने किसी गम्भीर तथ्य को कितनी बारीकी से और गहराई में उतरकर समझा है और अपनी भाषा में वह उसे कितनी दूर तक सुस्पष्ट कर सका है।
पल्लवन, व्याख्या और भावार्थ
पल्लवन, व्याख्या और भावार्थ के तात्त्विक अन्तर को समझ लेना चाहिए। पल्लवन और व्याख्या दोनों में सत्रिहित भाव अथवा विचार का विस्तार होता है; किन्तु पल्लवन में जहाँ केवल निहित भाव का विस्तार होता है, वहाँ व्याख्या में प्रसंगनिर्देश के साथ आलोचना तथा टीका-टिप्पणी के लिए भी स्थान सुरक्षित है। यह छूट 'पल्लवन' में नहीं है। पल्लवन और भावार्थ दोनों में मूलभाव को स्पष्ट किया जाता है। किन्तु, भावार्थ में भावविस्तार की एक सीमा होती है।
'पल्लवन' के लिए ऐसा कोई बन्धन नहीं। यहाँ विभित्र अनुच्छेदों में तब तक लिखा जायेगा, जब तक मूल लेखक के समस्त मनोभाव पूरी तरह स्पष्ट न हो जायँ। 'भावार्थ' में मूलभाव को अनुच्छेदों में लिखना आवश्यक नहीं। वहाँ तो मूल आवरण के केन्द्रीय भाव को पकड़ने की चेष्टा की जाती है। इसके विपरीत, 'पल्लवन' में मूल और गौण दोनों प्रकार के निहित भावों एवं विचारों को ग्रहण किया जाता है। यह 'संक्षेपण' का ठीक उल्टा है।
पल्लवन के कुछ सामान्य नियम
पल्लवन के कुछ उदाहरण
(1) उदाहरण
मूल अवतरण- 'विदेशी भाषा का विद्यार्थी होना बुरा नहीं, पर अपनी भाषा सर्वोपरि है।- महात्मा गाँधी
पल्लवन
कोई भी भाषा बुरी नहीं होती; क्योंकि सबकी अपनी-अपनी विशेषताएँ है, अपने-अपने बोलनेवाले होते है। हर भाषा यदि किसी अन्य के लिए केवल 'भाषा' है, तो अपने लिए 'मातृभाषा' भी होती है। किसी 'भाषा' या किसी की 'मातृभाषा' को बुरा मानना या समझना मनुष्यता नहीं, विद्याप्रेम नहीं, बल्कि संकीर्णता और नीचता है। फिर, हर भाषा का अपना साहित्य होता है और साहित्य मानवमात्र के प्रेम की वस्तु है। संसार के कोने-कोने में अनगिनत भाषाएँ बोली और लिखी जाती है जिनकी अपनी प्रकृति और अपने उच्चारण हैं। ये सारी भाषाएँ सीखी जा सकती है। हजारों विद्यार्थी विदेशी भाषाओं या दूसरे की भाषाओं का अध्ययन करते है, ताकि उनके साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। हर भाषा के साहित्य की अपनी विशिष्टता है। उस विशिष्टता में किसी भी देश की मानसिक विलक्षणता रहती है। इन सारी बातों की जानकारी के लिए ही विदेशी भाषाओं का अध्ययन होता है।
यह कोई बुरी बात नहीं। अनेक भाषाओं का ज्ञान आवश्यक है; क्योंकि इससे मानवीय दृष्टि व्यापक विचार उदार और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध दृढ़ होते है। इसलिए विदेशी भाषा या दूसरी भाषा का विद्यार्थी होना बुरा नहीं है। लेकिन, विदेशी भाषाओं या दूसरों की भाषाओं को पढ़ने के पहले अपनी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। अपनी भाषा में हृदय बोलता है; इसमें माँ की ममता, राष्ट्रीय सम्बन्धों का माधुर्य और अपने को जानने-पहचानने की सरलता रहती है। अपनी भाषा में अपनापन रहता है। इसके लिए हमें विशेष श्रम नहीं करना पड़ता, व्यर्थ की माथापच्ची और समय की बरबादी नहीं करनी पड़ती। हिन्दी हमारी मातृभाषा है। इसलिए इसके व्यवहार में हमें जितनी सहजता और सुविधा का बोध होता है, उतनी सहजता और सुविधा का बोध विदेशी भाषाओं में नहीं होता। कारण यह है कि हिन्दी हम घर-बाहर सभी जगह बोलते है; इसी में हम अपने मन में बातें सोचते हैं, किसी विदेशी भाषा में नहीं।
इसलिए यह हर तरह की शिक्षा का माध्यम होती है- चाहे वह अन्य किसी भाषा की शिक्षा हो या कला-कारीगरों की। अगर हम कोई विदेशी भाषा सीखते है, तो अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही। इसलिए, अब हम किसी दूसरी सीखी भाषा को बोलते है, तो मातृभाषा में मन में जो हम सोचते है, वह उसी का अनुवाद होता है। इसलिए इसके बिना हम रह ही नहीं सकते। यह हमारे दैनिक जीवन के साथ घुली-मिली है। जैसे दूध में पानी घुला होता है, उसी तरह मातृभाषा में भी हमारी माँ का संस्कार, उसका प्यार और मिठास है। अतः अपनी भाषा सर्वोपरि है। भाषाओं के अध्ययन में इसी का सबसे ऊँचा स्थान है। यही कारण है कि सभी सभ्य देशों में शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जाती है।
(2) उदाहरण
मूल अवतरण- 'नर और नारी जनमते और मरते हैं, परन्तु राष्ट्र सदा अमर रहता है।- जवाहरलाल नेहरू
पल्लवन
किन्तु यह 'ह्रास' ह्रास ही है, 'राष्ट्र' का नाश नहीं। राष्ट्र के साथ उसकी संस्कृति, साहित्य, परम्परा, कला, ऐताहासिक चेतना-जैसे जो अमर तत्त्व है, वे किसी भी पतन के समय अपने नागरिकों को पुनः सचेत और प्रकृतिस्थ करते है और तब पहले से अधिक तीव्रता से वे नागरिक ही अपनी विश्रृंखलता को समाप्त कर एक हो जाते है, राष्ट्रमय हो जाते है। मनुष्य मरता है, मगर उसकी परम्परा कभी नहीं मरती; व्यक्ति मरता है, मगर राष्ट्र नहीं मरता। राष्ट्र की परम्परा और इतिहास-चेतना ही प्रधान होती है। इतिहास में ऐसा भी हुआ है कि किसी राष्ट्रीय जाति को किसी भौगोलिक सीमा, अर्थात देश से आक्रमणकारियों ने उखाड़ दिया। मगर अपनी परम्परा और ऐतिहासिक चेतना को लिये वह राष्ट्रीय जाति किसी ऐतिहासिक अवसर का लाभ उठाकर पुनः राष्ट्रमय हो ही जाती है। इस आधार पर कहा जाय, तो जाति, कौम और राष्ट्र एक ही अर्थ प्रकट करनेवाले शब्द हैं। इन शब्दों का ऐतिहासिक अर्थ है, साम्प्रदायिक नहीं, क्योंकि इन शब्दों के पीछे एक-जैसे सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक एकत्व का बोध है।
इसी प्रकार कश्मीर से कन्याकुमारी और कामरूप से कच्छ तक फैले भारतीय राष्ट्र में नदी, पर्वत, वृक्ष, लता, क्षेत्र इत्यादि के साथ जुड़ा आत्मीयता का सम्बन्ध केवल भौगोलिक ही नहीं, बल्कि वंशपरम्पराओं का भी है। फिर ये वंशपरम्पराएँ एक-सी साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, नैतिक और ऐतिहासिक विरासतों से एक-दूसरे से बंधी है। आज भारत के किसी एक कोने का निवासी मूलतः किसी अन्य छोर का वंशज है; किसी एक कोने की भाषा बोलनेवाला मूलतः किसी दूसरे ही छोर की जनमी भाषा बोलता है; सारे तीर्थ, सारी नदियाँ, सारे धाम और सारे यात्रापथ एक-दूसरे के ऐतिहासिक मिलन के साक्षी है; सारे वंशों की रगों में एक ही पारम्परिक रक्त का संचार है। यही कारण है कि भारत एक राष्ट्र है। साम्प्रदायिक चिढ़ या स्वार्थ के कारण अपनी ही राष्ट्रीयता से इनकार करनेवाले कुछ लोगों द्वारा बनाया गया पाकिस्तान भी भारत राष्ट्र का ही एक अंश है।
किन्तु वह मात्र राजनीतिक कारण से अलग है। राष्ट्रीयता का कोई राजनीतिक कारण नहीं होता, बल्कि सांस्कृतिक कारण ही होता है। समस्त का कोई राजनीतिक कारण नहीं होता, बल्कि सांस्कृतिक कारण ही होता है। समस्त सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और न्यायिक कारणों से पाकिस्तान के लोग भारत राष्ट्र की ही सन्तान हैं। रक्त से, भाषा से, खान-पान, आचार-व्यवहार या नस्ल से पाकिस्तान के लोग भी वही है जो भारत के लोग हैं। किसी के धर्मपरिवर्तन से ही नस्ल का परिवर्तन या राष्ट्र का परिवर्तन नहीं होता। यदि ऐसा होता तो मलय राष्ट्र में मलय नस्ल या मलय जाति का क्या अर्थ होता? मलय राष्ट्र में बहुसंख्यक मुसलमान होने पर भी वे अरबी क्यों नहीं है, मलयी और ठेठ मलयी परम्परा के ही क्यों है ? व्यक्ति के मरने से राष्ट्र नहीं मरता। व्यक्ति के धर्मपरिवर्तन से राष्ट्रीयता के परिवर्तन की साम्प्रदायिक नारेबाजी तो और भी बड़ी मूर्खता है। अतः नर-नारी के जनमते-मरने पर भी राष्ट्र अमर है; बल्कि राष्ट्र की जो संस्कृति और राष्ट्रीयता है, वह सारे राष्ट्र के नागरिकों के धर्मपरिवर्तन तक कर लेने पर वही रहती है, बदलती नहीं।