1.हिन्दी भाषा का विकास
भाषा-परिवार | भारत में बोलनेवालों का % |
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भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी-तिब्बती | 0.7% |
नाम | प्रयोग काल | उदाहरण |
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प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.) | 1500 ई० पू० - 500 ई० पू० | वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.) | 500 ई० पू - 1000 ई० | पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.) | 1000 ई० - अब तक | हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएं- बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि |
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)
नाम | अन्य नाम | प्रयोग काल |
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वैदिक संस्कृत | छान्दस (यास्क, पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम) | 1500 ई० पू० - 1000 ई० पू० |
लौकिक संस्कृत | संस्कृत, भाषा (पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम) | 1000 ई० पू० - 500 ई० पू० |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)
नाम | प्रयोग काल | विशेष टिप्पणी |
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प्रथम प्राकृत काल : पालि | 500 ई० पू० - 1ली ई० | भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल : प्राकृत | 1ली ई० - 500 ई० | भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही है। |
तृतीय प्राकृत काल : अपभ्रंश | 500-1000 ई० | |
: अवहट्ट | 900-1100 ई० | संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)
हिन्दी
प्राचीन हिन्दी | 1100 ई० - 1400 ई० |
मध्यकालीन हिन्दी | 1400 ई० - 1850 ई० |
आधुनिक हिन्दी | 1850 ई० - अब तक |
हिन्दी का विकास क्रम :
संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-अवहट्ट-प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी
(विकास चिह्न के लिए प्रयुक्त संकेत)
अपभ्रंश
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास
अपभ्रंश के भेद | आधुनिक भारतीय आर्यभाषा |
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शौरसेनी | पश्चिमी हिन्दी राजस्थानी गुजराती |
अर्द्धमागधी | पूर्वी हिन्दी |
मागधी | बिहारी उड़िया बांग्ला असमिया |
खस | पहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित) |
ब्राचड़ | पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित) सिन्धी |
महाराष्ट्री | मराठी |
अवहट्ट
प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से संबंधित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर-पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आनेवाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही संबंध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे [सिंधु- हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन- पहलवी भाषा प्रवृति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन। 'हिन्दु' से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फारसी भाषा के संबंध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है- 'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्द की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।
उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं-
(1) 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ-
सिंधु - हिन्दु - हिन्द + ई - हिन्दी।
(2) 'हिन्दी' शब्द मूलतः फारसी का है न कि हिन्दी भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जन्मे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालांकि कुछ कट्टर हिन्दी-प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश की है, जैसे- हिन (हनन करनेवाला) + दु (दुष्ट) = हिन्दु अर्थात दुष्टों का हनन करनेवाला हिन्दु और उन लोगों की भाषा हिन्दी; हीन (हीनों) + दु (दलन) = हिन्दु अर्थात हीनों का दलन करनेवाला हिन्दु और उनकी भाषा हिन्दी। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
(3)'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं- 'हिन्द देश के निवासी' (यथा- 'हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा'- इक़बाल) और 'हिन्द की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द इन दो आरंभिक अर्थो से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई 'हिन्दी' नहीं कहता बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं जो सब हिन्दी नहीं कहलाती। बेशक ये सभी हिन्दी की भाषाएँ हैं लेकिन केवल हिन्दी नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं इसलिए हिन्दी की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है।
मध्यकालीन हिन्दी
प्रमुख रचनाकार
आधुनिककालीन हिन्दी
खड़ी बोली
पद्य के ही नहीं, गद्य के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचन्द युग, प्रेमचंदोत्तर युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल-पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।
हिंदी के विभिन्न नाम या रूप
(1) हिन्दवी/हिन्दुई/जबान-ए-हिन्दी/देहलवी : मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिससे अरबी-फारसी शब्दों का अभाव है। [सर्वप्रथम अमीर खुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए एक फारसी-हिन्दी कोश 'खालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।]
(2) भाषा/भाखा : विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। [19 वीं सदी के प्रारंभ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा है। फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।]
(3) रेख्ता : मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे- मीर, ग़ालिब की रचनाएँ)
(4) दक्खिनी/दक्कनी : मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों द्वारा फारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। [हिन्दी में गद्य रचना परंपरा की शुरुआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1667-1707) को है। वह मुगल शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।]
(5) खड़ी बोली
खड़ी बोली की 3 शैलियाँ
हिन्दी/शुद्ध हिन्दी/उच्च हिन्दी/नागरी हिन्दी/आर्यभाषा : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे-जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)
उर्दू/जबान-ए-उर्दू/जबान-ए-उर्दू-मुअल्ला : फारसी लिपि में लिखित अरबी-फारसी बहुल खड़ी बोली (जैसे-मण्टो की रचनाएँ)
हिन्दुस्तानी : हिन्दी-उर्दू का मिश्रित रूप व आम जन द्वारा प्रयुक्त (जैसे- प्रेमचंद्र की रचनाएँ)
नोट : 13वीं सदी से 18वीं सदी तक हिन्दी-उर्दू में कोई मौलिक भेद नहीं था।
हिन्दी के विभिन्न अर्थ
(1) भाषा शास्त्रीय अर्थ : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।
(2) संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ : संविधान के अनुसार, हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
(3) सामान्य अर्थ : समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
(4) व्यापक अर्थ : आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।
2. स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा (National Language) क्या है ?
(1) राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है- समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात आम जन की भाषा (जनभाषा) । जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार-विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
(2) राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
(3) स्वतंत्रता--संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई०-1947 ई०) राष्ट्रभाषा बनी।
(4) राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता-प्राप्त शब्द है।
(5) राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
(6) राष्ट्रभाषा का प्रयोग-क्षेत्र विस्तृत और देशवासी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक अनाधार होता है।
(7) राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
(राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।
(8) राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।
(1)अंग्रेजों का योगदान
(2) धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
(3) कांग्रेस के नेताओं का योगदान
राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्ते होनी चाहिए- | |
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(1) | अमलदारों (राजकीय अधिकारियों) के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए। |
(2) | यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों। |
(3) | उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए। |
(4) | राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए। |
(5) | उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देनी चाहिए।'' |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
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ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई० | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई० | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई० | दयानंद सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी | अडयार मद्रास | 1882 ई० | कर्नल एच.एस.आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी |
सनातन धर्म सभ (भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) | वाराणसी | 1895 ई० | पं० दीन दयाल शर्मा |
रामकृष्ण मिशन | बेलुर | 1897 ई० | विवेकानंद |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित साहित्यिक संस्थाएँ
नाम | मुख्यालय | स्थापना |
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नागरी प्रचारिणी सभा | काशी/वाराणसी | 1893 ई० संस्थापक-त्रयी-श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह |
हिन्दी साहित्य सम्मेलन | प्रयाग | 1910 ई० (प्रथम सभापति-मदन मोहन मालवीय) |
गुजरात विद्यापीठ | अहमदाबाद | 1920 ई० |
बिहार विद्यापीठ | पटना | 1921 ई० |
हिन्दुस्तानी एकेडमी | इलाहाबाद | 1927 ई० |
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम-हिन्दी साहित्य सम्मेलन) | मद्रास | 1927 ई० |
हिन्दी विद्यापीठ | देवघर | 1929 ई० |
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति | वर्धा | 1936 ई० |
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा | पुणे | 1937 ई० |
बंबई हिन्दी विद्यपीठ | बंबई | 1938 ई० |
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति | गुवाहटी | 1938 ई० |
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद | पटना | 1951 ई० |
अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ | नई दिल्ली | 1964 ई० |
नागरी लिपि परिषद | नई दिल्ली | 1975 ई० |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित व्यक्तित्व
बंगाल : राजा राम मोहन राय, केशवचन्द्र सेन, नवीन चन्द्र राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, तरुणी चरण मित्र, राजेन्द्र लाल मित्र, राज नारायण बसु, भूदेव मुखर्जी, बंकिम चन्द्र चटर्जी ('हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के मध्य में जो ऐक्यबंधन संस्थापन करने में समर्थ होंगे वही सच्चे भारतबंधु पुकारे जाने योग्य है'।), सुभाष चन्द्र बोस ('अगर आज हिन्दी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।'), रवीन्द्र नाथ टैगोर ('यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधी ने हमलोगों से की है। इसी विचार से हमें एक भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है।'), रामानंद चटर्जी, सरोजनी नायडू, शारदा चरण मित्र (अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक), आचार्य क्षिति मोहन सेन ('हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ।' आदि।
महाराष्ट्र : बाल गंगाधर तिलक ('यह आंदोलन उतर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।'), एन.सी.केलकर, डॉ भण्डारकर, वी० डी० सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका कालेलकर आदि।
पंजाब : लाला लाजपत राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी आदि।
गुजरात : दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल (के० एम०) मुंशी ('हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है; वह तो है ही'।) आदि।
दक्षिण भारत : सी० राजागोपालाचारी, टी० विजयराघवाचार्य ('हिन्दुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिन्दी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दीख पड़ती है'।), सी० पी० रामास्वामी अय्यर ('देश के विभिन्न भागों के निवासियों के व्यवहार के लिए सर्वसुगम और व्यापक तथा एकता स्थापित करने के साधन के रूप में हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है।'), अनन्त शयनम आयंगर ('हिन्दी ही उत्तर और दक्षिण को जोड़नेवाली समर्थ भाषा है।'), एस० निजलिंगप्पा ('दक्षिण की भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेन-देन किया है, इसलिए उसी परंपरा में आई हुई हिन्दी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने लायक है।'), रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर ('जो राष्ट्रप्रेमी है, उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना चाहिए।'), के० टी० भाष्यम, आर० वेंकटराम शास्त्री, एन० सुन्दरैया आदि।
अन्य : मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन (उपनाम- 'हिन्दी का प्रहरी', कथन : 'मैं हिन्दी का और हिन्दी मेरी है।'), राजेन्द्र प्रसाद, सेठ गोविंद दास आदि।
महात्मा गाँधी के भाषा-संबंधी विचार | |
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1. | करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी'। ('हिन्द स्वराज्य' 1909) |
2. | 'अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पांव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। ...... भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान अर्जित करने पर कम-से-कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं। .... यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़े, तो फिर और क्या हो सकता है' । (1914) |
3. | 'जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अत्यंत पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती'। (1916) |
4. | 'हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है यह बात निर्विवाद सिद्ध है। .... जिस स्थान को अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए क्योंकि हिन्दी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजी को नहीं मिल सकता क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है' । (1917) |
5. | 'हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते है और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी है'। (1918) |
6. | 'हिन्दी और उर्दू नदियाँ है और हिन्दुस्तानी सागर है। हिन्दी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। दोनों का मुकाबला तो अंग्रेजी से है' ।(1917) |
7. | 'अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है'। |
8. | 'मैं यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता) तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने पर मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए' । |
9. | 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूँगा जिस तरह बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा- वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों-करोड़ो की नहीं' । |
10. | 'लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी'। |
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास
राजभाषा (Official Language) क्या है ?
(1) राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है- राज-काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह 'राजभाषा' कहलाती है। राजाओं-नवाबों के जमाने में इसे 'दरबारी भाषा' कहा जाता था।
(2) राजभाषा सरकारी काम-काज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।
(3) स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा की आवश्यकता होती है प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
(4) राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
(5) राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।
(6) राजभाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है, यथा : वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों- हिन्दी क्षेत्र के राज्यों-में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं; महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
(7) राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। जो कि स्वभाषा है।
(8) राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
(I) हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा
(1) हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा है।
(2) संविधान के लागू होने के दिन से 15 वर्षो की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
(3) एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।
अनु 120 : संसद में प्रयोग की जानेवाली भाषा
संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति लोकसभाध्यक्ष या राज्य सभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रेजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
अनु 210 : राज्य विधानमंडल में प्रयोग की जानेवाली भाषा
राज्यों के विधानमण्डलों का कार्य अपने-अपने राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति विधानसभाध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
भाग-17
राजभाषा
अध्याय 1 : संघ की भाषा
अनु० 343 : संघ की राजभाषा
(1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तराष्ट्रीय रूप होगा।
(2) इस संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक (अर्थात 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जा रहा था।
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अन्तराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
(3) संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात, विधि द्वारा
(i) अंग्रेजी भाषा का; या
(ii) अंकों के देवनागरी रूप का,
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।
अनु० 344 : राजभाषा के संबंध में आयोग (5 वर्ष के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा) और संसद की समिति (10 वर्ष के उपरांत)
अध्याय 2 : प्रादेशिक भाषाएँ
अनु० 345 : राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ (प्रादेशिक भाषा/ भाषाएँ या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी)
अनु० 346 : एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (संघ द्वारा तत्समय प्राधिकृत भाषा; आपसी करार होने पर दो राज्यों के बीच हिन्दी)
अनु० 347 : किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जानेवाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध
अध्याय 3 : SC, HC आदि की भाषा
अनु० 348 : SC और HC में और संसद व राज्य विधान मंडल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा (उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी)
अनु० 349 : भाषा से संबंधित कुछ विधियाँ अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रकिया (राजभाषा संबंधी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पेश नहीं की जा सकती और राष्ट्रपति भी आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद ही मंजूरी दे सकेगा)
अध्याय 4 : विशेष निदेश
अनु० 350 : व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी की भाषा में)
(i) भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ
(ii) भाषाई अल्पसंख्यक वर्गो के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति (राष्ट्रपति द्वारा)
अनु० 351 : हिन्दी के विकास के लिए निर्देश
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।8वीं अनुसूची
भाषाएँ
8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है। इस अनुसूची में आरंभ में 14 भाषाएँ [(1) असमिया (2) बांग्ला (3) गुजराती (4) हिन्दी (5) कन्नड़ (6) कश्मीरी (7) मलयालम (8) मराठी (9) उड़िया (10) पंजाबी (11) संस्कृत (12) तमिल (13) तेलुगू (14) उर्दू ] थीं। बाद में सिंधी को (21 वां संशोधन, 1967 ई०), तत्पश्चात कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को (71वां संशोधन, 1992 ई०) शामिल किया गया, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरांत बोडो, डोगरी, मैथली, संथाली को (92 वां संशोधन, 2003) शामिल किया गया और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गई।
अध्याय 1 (संघ की भाषा) की समीक्षा
अनु० 343 के संदर्भ में : संविधान के अनु० 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है। अनु० 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख अर्थात 26 जनवरी, 1950 ई० से लागू नहीं किया जा सकता था। इसे लागू करने के लिए संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद की अवधि रखी तो गई, परन्तु फिर अनु० 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही-सही कसर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ कर दिया कि अंग्रेजी की हुकूमत देश पर अनंत काल तक बनी रहेगी।
इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिए 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेजियत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।
अनु० 344 के संदर्भ में : अनु० 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग/बी० जी० खेर आयोग का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति/जी० बी० पंत समिति का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर जोर दिया वहाँ पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर जोर तो दिया लेकिन अंग्रेजी को हटाने की बजाय उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वकालत की। हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।
समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता-संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल संपर्क भाषा होकर रह गयी।
अध्याय 2 (प्रादेशिक भाषाएँ) एवं 8वीं अनुसूची की समीक्षा
अनु० 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के संबंध में राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छदों के अधीन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय 9 राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, व हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश-दिल्ली-की राजभाषा है। उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र-व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार की सरकारों ने हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से पत्र-व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।
अनु० 347 के अनुसार यदि किसी राज्य का पर्याप्त अनुपात चाहता है कि उसके द्वारा बोली जानेवाली कोई भाषा राज्य द्वारा अभिज्ञात की जाय तो राष्ट्रपति उस भाषा को सरकारी अभिज्ञा दे सकता हैं। समय-समय पर राष्ट्रपति ऐसी अभिज्ञा देते रहे हैं, जो 8वीं अनुसूची में स्थान पाते रहे हैं, जैसे 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथली व संथाली। यही कारण है कि संविधान लागू होने के समय जहाँ 14 प्रादेशिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त थी वहीं अब यह संख्या बढ़कर 22 हो गई है।
अध्याय 3 (SC, HC आदि की भाषा अर्थात न्याय व विधि/कानून की भाषा) की समीक्षा
अनु० 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व कानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान लिया गया है, अंग्रेजी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेजी में ही बनाये जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार, न्याय व कानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।
अध्याय 4 (विशेष निदेश) की समीक्षा
अनु० 350 : भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हकदार माना गया है लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेजी में अभ्यावेदन करने पर ही अधिकारी तवज्जो/ध्यान देना गवारा करते हैं।
अनु० 351 : (हिन्दी के विकास के लिए निदेश) : अनु० 351 राजभाषा विषयक उपबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हिन्दी के भावी स्वरूप के विकास की परिकल्पना सन्निहित है। हिन्दी को विकसित करने की दिशाओं का इसमें संकेत है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार के लिए समुचित प्रयास करे ताकि भारत में राजभाषा हिन्दी के ऐसे स्वरूप का विकास हो, जो समूचे देश में प्रयुक्त हो सके और जो भारत की मिली-जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति की वाहिका बन सके। इसके लिए संविधान में इस बात का भी निर्देश दिया गया है कि हिन्दी में हिन्दुस्तानी और मान्यताप्राप्त अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली और शैली को भी अपनाया जाय और मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भाषाओं (विश्व की किसी भी भाषा) से शब्द ग्रहण कर उसके शब्द-भंडार को समृद्ध किया जाय।
संविधान के निर्माताओं की यह प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी भारत में ऐसी सर्वमान्य भाषा के स्वरूप को ग्रहण करें, जो सब प्रांतों के निवासियों को स्वीकार्य हो। संविधान के निर्माताओं को यह आशा थी कि हिन्दी अपने स्वाभाविक विकास में भारत की अन्य भाषाओं से वरिष्ठ संपर्क स्थापित करेगी और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच में साहित्य का आदान-प्रदान भी होगा।
संविधान के निर्माताओं ने उचित ढंग से यह आशा की थी कि राजभाषा हिन्दी अपने भावी रूप का विकास करने में अन्य भारतीय भाषाओं का सहारा लेगी। यह इसलिए था कि राजभाषा हिन्दी को सबके लिए सुलभ और ग्राह्य रूप धारण करना है।
(II) 1950 ई० के बाद हिन्दी की संवैधानिक प्रगति
आयोग की सिफारिशें : (1) सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाए। (2) देश में न्याय देश की भाषा में किया जाए। (3) जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग संभव नहीं। अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग ठीक है, किन्तु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।
टिप्पणी : आयोग के दो सदस्यों ने-बंगाल के सुनीति कुमार चटर्जी व तमिलनाडु के पी० सुब्बोरोयान-आयोग की सिफारिशों से असहमति प्रकट की और आयोग के सदस्यों पर हिन्दी का पक्ष लेने का आरोप लगाया। जो भी हो, प्रथम राजभाषा आयोग/खेर आयोग ने हिन्दी के अधिकाधिक और प्रगामी प्रयोग पर बल दिया था। खेर आयोग ने जो ठोस सुझाव रखे थे, सरकार ने उन्हें महज औपचारिक मानते हुए राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए।
पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता-पूर्व का जोश ठंढा पड़ गया है। सिफारिशें- (1) हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी-से-जल्दी ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित तारीख (जैसे 26 जनवरी, 1965 ई०) नहीं दी जा सकती यह परिवर्तन धीरे-धीरे स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।
(2) 1965 ई० तक अंग्रेजी प्रधान राजभाषा और हिन्दी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो जाये, अंग्रेजी संघ की सहायक/ सह राजभाषा रहनी चाहिए।
टिप्पणी : पंत समिति के सिफारिशों से राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविंद दास असहमत व असंतुष्ट थे और उन्होंने यह आरोप लगाया कि सरकार हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रास्थापित करने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए हैं। इन दोनों नेताओं ने समिति द्वारा अंग्रेजी को राजभाषा बनाये रखने का भी घोर विरोध किया। जो भी हो, सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।
राष्ट्रपति का आदेश, 1960 : शिक्षा मंत्रालय, विधि मंत्रालय, वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित करने हेतु विभिन्न निर्देश।
राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में संशोधित) : संविधान के अनुसार 15 वर्ष के बाद अर्थात 1965 ई० से सारा काम-काज हिन्दी में शुरू होना था, परन्तु सरकार की ढुल-मुल नीति के कारण यह संभव नहीं हो सका। अहिन्दी क्षेत्रों में, विशेषतः बंगाल और तमिलनाडु (DMK द्वारा) में हिन्दी का घोर विरोध हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हिन्दी क्षेत्र में हुई। जनसंघ (स्थापना-1951 ई०, संस्थापक-श्यामा प्रसाद मुखर्जी) एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/ पी० एस० पी० (स्थापना-1952 ई०, संस्थापक-लोहिया) द्वारा हिन्दी का घोर समर्थन किया गया। हिन्दी के कट्टरपंथी समर्थकों ने भाषायी उन्माद को उभारा जिसके कारण हिन्दी की प्रगति के बदले हिन्दी को हानि पहुँची। इस भाषायी कोलाहल के बीच प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा। राजभाषा विधेयक को गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रस्तुत किया। राजभाषा विधेयक का उद्देश्य : जहाँ राजकीय प्रयोजनों के लिए 15 वर्ष बाद यानी 1965 से हिन्दी का प्रयोग आरंभ होना चाहिए था वहाँ व्यवस्था को पूर्ण रूप से लागू न करके उस अवधि के बाद भी संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग बनाये रखना।
राजभाषा अधिनियम के प्रावधान : राजभाषा अधिनियम, 1963 में कुल 9 धाराएँ हैं जिनमें सर्वप्रथम है- 26 जून, 1965 से हिन्दी संघ की राजभाषा तो रहेगी ही पर उस समय से हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भी संघ के उन सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बराबर प्रयुक्त होती रहेगी जिनके लिए वह उस तिथि के तुरन्त पहले प्रयुक्त की जा रही थी।
टिप्पणी : इस प्रकार 26 जून, 1965 से राजभाषा अधिनियम, 1963 के तहत द्विभाषिक स्थिति प्रारंभ हुई, जिसमें संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाएँ प्रयुक्त की जा सकती थीं।
राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 : समय-समय पर संसद के भीतर और बाहर जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए आश्वासनों और लाल बहादुर शास्त्री द्वारा राजभाषा विधेयक, 1963 को प्रस्तुत करते समय अहिन्दी भाषियों को दिलाए गए विश्वास को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से इंदिरा गाँधी, जो अपने पिता की भाँति अहिन्दी भाषियों से सहानुभूति रखती थी, के शासनकाल में राजभाषा (संशोधन) विधेयक, 1967 पारित किया गया।
राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 के प्रावधान : इस अधिनियम के तहत राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा के स्थान पर नये उपबंध लागू हुए। इसके अनुसार, अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प (resolution) पारित करना होगा और विधानमंडलों के संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात उसकी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित करना होगा। ऐसा नहीं होने पर अंग्रेजी अपनी पूर्व स्थिति में बनी रहेगी।
टिप्पणी : इस अधिनियम के द्वारा इस बात की व्यवस्था की गई कि अंग्रेजी सरकार के काम-काज में सहभाषा के रूप में तब तक बनी रहेगी जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सहमत न हो जाए। इसका मतलब यह हुआ कि भारत का एक भी राज्य चाहेगा कि अंग्रेजी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी।
संसद द्वारा पारित संकल्प (Resolution), 1968
(1) राजभाषा हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं की प्रगति को सुनिश्चित करना।
(2) त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को लागू करना-एकता की भावना के संवर्द्धन हेतु भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र को लागू करेगी। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत यह प्रस्तावित किया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी व अंग्रेजी के अतिरिक्त दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषा व अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी को पढ़ाने की व्यवस्था की जाय।
टिप्पणी : त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग सफल नहीं हुआ। न तो हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने किसी दक्षिणी भारतीय भाषा का अध्ययन किया और न ही गैर-हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी का।
राजभाषा के विकास से संबंधित संस्थाएँ
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य |
---|---|---|
केन्द्रीय हिन्दी समिति, नई दिल्ली | 1967 | भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के संबंध में चालू कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना; अध्यक्ष-प्रधानमंत्री |
(A) शिक्षा मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य | |
---|---|---|---|
1. | साहित्य अकादमी नई दिल्ली | 1954 | साहित्य को बढ़ावा देने-वाली शीर्षस्थ संस्था |
2. | नेशनल बुक ट्रस्ट (National Book Trust-N. B. T), नई दिल्ली | 1957 | शिक्षा, विज्ञान व साहित्य की उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कम मूल्यों पर जनता को उपलब्ध कराना |
3. | केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली | 1960 | शब्दकोशों, विश्वकोशों, अहिन्दी भाषियों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन |
4. | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली | 1961 | विज्ञान व तकनीक से संबंधित शब्दावलियों का प्रकाशन |
(B) गृह मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य | |
---|---|---|---|
1. | राजभाषा विधायी आयोग | 1965-75 | केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ का निर्माण |
2. | केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो | 1971 | देश में अनुवाद की सबसे बड़ी संस्था |
3. | राजभाषा विभाग | 1975 | संघ के विभिन्न शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित सभी मामले |
(C) विधि/कानून मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य |
---|---|---|
राजभाषा विधायी आयोग | 1975 | यह आयोग पहले गृह मंत्रालय के अधीन था। प्रमुख कानूनों के हिन्दी पाठ का निर्माण |
(D) सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन
1. | प्रकाशन विभाग (Publication Division) | 1944 |
2. | फ़िल्म प्रभाग (Films Division) | 1948 |
3. | पत्र सूचना कार्यालय (Press Information Bureau), नई दिल्ली | 1956 |
4. | आकाशवाणी | 1957 |
5. | दूरदर्शन | 1976 |
राष्ट्रभाषा व राजभाषा संबंधी कुछ विविध तथ्य
-सी० राजगोपालाचारी, सुनीति कुमार चटर्जी, हुमायूं कबीर, अनंत शयनम अय्यंगार आदि।
हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ
हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों को 5 वर्गो में बाँटा गया है। इन वर्गों को उपभाषा कहा जाता है। इन उपभाषाओं के अंतर्गत ही हिन्दी की 17 बोलियाँ आती हैं।
उपभाषा | बोलियाँ | मुख्य क्षेत्र |
---|---|---|
राजस्थानी | मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी) जयपुरी या ढुंढाड़ी (पूर्वी राजस्थानी) मेवाती (उत्तरी राजस्थानी) मालवी (दक्षिणी राजस्थानी) | राजस्थान |
पश्चिमी हिन्दी | कौरवी या खड़ी बोली बाँगरू या हरियाणवी ब्रजभाषा बुंदेली कन्नौजी | हरियाणा, उत्तर प्रदेश |
पूर्वी हिन्दी | अवधी बघेली छत्तीसगढ़ | मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश |
बिहारी | भोजपुरी मगही मैथली | बिहार उत्तर प्रदेश |
पहाड़ी | कुमाऊँनी गढ़वाली | उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश |
नोट : एक भाषा विद्वान के अनुसार, शुद्ध भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी की दो मुख्य उपभाषाएँ हैं- पश्चिमी हिन्दी व पूर्वी हिन्दी।
बोली, विभाषा एवं भाषा
(i)बोली का विकास विभाषा में और विभाषा का विकास भाषा में होता है।
बोली-विभाषा-भाषा
(ii) उदाहरण
भाषा- खड़ी बोली हिन्दी
विभाषा- हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख बोलियाँ- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथली
बोली- हिन्दी क्षेत्र की शेष बोलियाँ
प्रमुख बोलियों का संक्षिप्त परिचय
कौरवी या खड़ी बोली
ब्रजभाषा
रीतिकालीन : बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि।
आधुनिक कालीन : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि।
अवधी
भोजपुरी
मैथली
पटना किए एलऽह ? | पटना एलिअइ नोकरी करैले। |
भेटलह नोकरी ? | नोकरी कत्तौ नइ भेटल। |
गाँ में काज नइ भेटइ छलऽह ? | भेटै छलै, रुपैयाबला नइ, अऽनबला। |
तखन एलऽ किऐ ? | रिनियाँ तड़ केलकइ, ते। |
कत्ते रीन छऽह ? | चाइर बीस। |
सूद कत्ते लइ छऽह ? | दू पाइ महिनबारी। |
हिन्दी का उसकी बोलियों में रूपान्तरण
हिन्दी : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छोटे ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा अंश होता है सो मुझे दीजिए। तब उन्होंने उनमें अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छोटा पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुच्चेपन में दिन बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।
कौरवी या खड़ी बोली : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छुटके ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा अंश हो सो मुझे दीजिये। तब उसने उनको अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छुटका पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुचपन में दिन बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।
बाँगरू या हरियाणवी : एक माणस कै दो छोरे थे। उन मैं तै छोटे छोरे ने बाप्पू तै कह्या अक बाप्पू हो धन का जौण सा हिस्सा मेरे बाँडे आवै सै मन्नै दे दे। तौ उस ने धन उन्है बाँड दिया। अर थोड़ै दिना पाछै छोट्टा छोरा सब कुछ इकट्ठा कर कै परदेश ने चाल्ल गया और उड़ै अपणा धन खोट्टे चळण मैं खो दिया।
ब्रजभाषा : एक जने के दो छोरा है। उनमैं-ते लोहरे-ने कही कि काका मेरे बट-कौ धन मोए दे। तब वा-ने धन उन्हैं बटि-करि दियौ। और थोरे दिना पाछे लोहरे बेटा-ने सिगरौ धन इक ठौरौ करिके दूर देसन कूँ चल्यों और वा जगे अपनौ धन उड़ाय दियौ।
बुंदेली : एक जने के दो कुँवर तै। लौरे ने मालकन तेँ कई कि ऐ जू मौ काँ धन मेँ से जो मोरो हिसा होय सो मिलबै आवै। तब उनने अपनो धन बाँट दओ। कछु दिनन भयेते कि लौरे कुँवर बोत धन जोर के परदेश जात रये। माँ लूचपन में दिन खोये और अपनो धन उड़ा डारो।
कन्नौजी : एक जने के दोए लड़िका हते। उनमेँ से छोटे ने बाप से कही कि हे पिता मालु को हीसाँ जो हमारी चाहिये सो देओ। तब उन ने मालु उन्हेँ बाँट दओ। औरू थोरे दिनन पीछे छोटे लड़िका ने सब कुछ इकट्ठा करि के एक दूरि के देस को चलो गओ और हुआँ अपनी मालु बुरे चलन में उड़ाओ।
अवधी : एक मनई के दुइ बेटवे रहिन। ओह-माँ लहुरा अपने बाप से कहिस दादा धन माँ जवन हमरा बखरा लागत-होय तवन हम-का दै-द अउर वै आपन धन उन-का बाँट दिहिन। अउर ढेर दिन नाहीं बीता कि लहुरा बेटवा सब धन बटोर-के परदेस चल गय अउर उहाँ आपन धन कुचाल माँ लुटाय पड़ाय दिहिस।
बघेली : कौनेउ मड़ई के दुइ गद्याल रहैं। उन अपने बाप तन कहिन कि अरे मोरे बाप तैं हमरे हीसन-का माल-टाल हमेँ बाँटि दिहिस। कुछ दिन बीते छोटे गद्याले आपन सब माल-टाल जमा किहिस और लै-कै बड़ी दूरी विदेसै निकरि गवा। हुन आपन सब रुपया पैसा गुंडई-माँ उठाय डारिस।
छत्तीसगढ़ी : कोनो आदमी-के दू छोकरा रहिस है। वो माँ के सबसे छोटे-हर अपन बाप से कहिस के जोन मोर हिस्सा होय वो-ला दे-दे। तब वो-हर अपन जायदाद-ला बाँट दिहिस। थोरेक दिन के पिछे छोटे छोकरा-हर आपन सब जायदाद-ला जोर-के दुरिह्या देस चले गइस और उहां अपन सब जायदाद-ला फूंक दिहिस।
भोजपुरी : कउनी अदिमी के तुइठे लरिका रहुए। उन्हि मैँ छोटका बाबू-जी से कहलसि की ए बाबू जी धन मेँ जे किछ हमार बखरा होइ से हमरा के बाँट दी। तब उहाँ का आपन धन बाँट दिहली। बहुत दिन ना बीतल की छोटका आपन कुल धन ले के परदेश में चल गउए और उहाँ लुचई मेँ आपन धन उड़ा दिहलसि
मगही : कोई आदमी के दू बेटा हलइ। ओकर में से छोटका आपन बाप से कहलइ कि ए बाप धन दौलत के जे हमर बंखरा होव हइ से हमरा दे द। तब ऊ अपन धन-दौलत बाँट देलइ। ढेर दिन नइ बितलइ कि छोटका बेटा सब जमा करलइ अवर दूर देश चल गेलइ अवर उ हुआँ धन-दौलत लुचइ में उड़ा देलइ।
मैथली : एक केहु आदमी केँ दू लरिका रहै। ओह में से छोटका बाप से कहलक, हो बाबू धन सर्बस मेँ से जे हम्मर हिस्सा बखरा होय से हमरी के दे द। त ऊ ओकरा केँ अपन धन बाँट देलक। बहुत दिन न भैलैक कि छोटका लरिका सब किछिओ जमा करके दूर चल गेल और उहां लम्पटै में दिन गमवैत अप्पन सर्बस गमा देलक।
कुमाऊँनी : एक मैसाक द्वि च्याला छया। उनून में नान च्याला ले बाबू थेँ क्यों कि ओ बाबा तुमार धन में जो मेरो बाँणो को होऔं बो मैकैं दी दिय, तब वीले आपन धन उनून में बाँणि दियो। मनै दिन भ्या कि नान चेलो सब कुछ बटोलिबेर परदेस न्हैग्यो और वाँ वीले आपनि गठि उड़ै दी।
गढ़वाली : एक क्षण का दूइ नौन्याल थ्या। ऊँ-मा-न-काणसा न अपना बूबा माँ बोले कि हे बूबा बिरसत को बाँठो जो मेरो छ मैँ दे। तब वै न बिरसत ऊ सणी बाँटी दिने; और भिंडे दिन नि होया काणसा नौन्याल न सब कठो करी क एक दूर देस चल्ला और अख अपणी रोजी कुकर्म में उडाये।
देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि का विकास
उत्तर ब्राह्मी (350 ई० तक)-गुप्त लिपि (4वीं-5वीं सदी)-सिद्धमातृका लिपि-कुटिल लिपि- नागरी एवं शारदा
शारदा- गुरुमुखी, कश्मीरी, लहंदा, टाकरी
नागरी
(i) पश्चिमी शाखा- देवनागरी, राजस्थानी, गुजराती, महाजनी, कैथी
(ii) पूर्वी शाखा- बांग्ला लिपि, असमी, उड़िया
देवनागरी लिपि का हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के रूप में विकास
मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट, गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई०)- मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका 'कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज' (1897 ई०) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई० में प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीयजी का ही अथक प्रयास था जिसके परिमाणस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
देवनागरी लिपि का नामकरण
देवनागरी लिपि का स्वरूप
देवनागरी लिपि के गुण
(1) एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत
(2) एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त
(3) जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम
(4) मूक वर्ण नहीं
(5) जो बोला जाता है वही लिखा जाता है
(6) एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं
(7) उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता
(8) वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप
(9) प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)
(10) भारत की अनेक लिपियों के निकट
देवनागरी लिपि के दोष
(1) कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई
(2) शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए
(3) समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)
(4) वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं
(5) अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव
(6) त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।
(7) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति
(10) इ की मात्रा ( ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद
देवनागरी लिपि में किये गये सुधार
(1) बाल गंगाधर का 'तिलक फांट' (1904-26)
(2) सावरकर बंधुओं का 'अ की बारहखड़ी'
(3) श्याम सुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव
(4) गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव (जैसे, कुल- क ु ल)
(5) श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे s चिह्न लगाने का सुझाव
(6) हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफारिशें
(7) काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
(8) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें
(9) शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी प्रकाशन- 'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966 ई०), 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1967 ई०), 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1983 ई०) आदि।
हिन्दी भाषा का मानकीकरण
मानक भाषा (Standard Language)
किसी भाषा का बोल-चाल के स्तर से ऊपर उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना उसका मानकीकरण कहलाता है।
प्रथम सोपान : 'बोली' : पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होनेवाली बोली का होता है, जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे शिक्षा, आधिकारिक कार्य-व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।
द्वितीय सोपान : 'भाषा' : वही बोली कुछ विशेष भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से अपना क्षेत्र विस्तार कर लेती है, उसका लिखित रूप विकसित होने लगता है और इसी कारण वह व्याकरणिक साँचे में ढलने लगती है, उसका पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि में प्रयोग होने लगता है, तब वह बोली न रहकर 'भाषा' की संज्ञा प्राप्त कर लेती है।
तृतीय सोपान : 'मानक भाषा' : यह वह स्तर है जब भाषा के प्रयोग का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। वह एक आदर्श रूप ग्रहण कर लेती है। उसका परिनिष्ठित रूप होता है। उसकी अपनी शैक्षणिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, तकनीकी एवं क़ानूनी शब्दावली होती है। इसी स्थिति में पहुँचकर भाषा 'मानक भाषा' बन जाती है। उसी को 'शुद्ध', 'उच्च-स्तरीय', 'परिमार्जित' आदि भी कहा जाता है।
हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण कदम
(1) राजा शिवप्रसाद 'सितारे-हिन्द' ने क ख ग ज फ पाँच अरबी-फारसी ध्वनियों के लिए चिह्नों के नीचे नुक्ता लगाने का रिवाज आरंभ किया।
(2) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के जरिये खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।
(3) अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को 'ठेठ हिन्दी' की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया। उन्होंने खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।
(4) हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से द्विवेदी युग (1900-20) सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग था। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली के मानकीकरण का सवाल सक्रिय रूप से और एक आंदोलन के रूप में उठाया। युग निर्माता द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' पत्रिका के जरिये खड़ी बोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को गढ़ने-संवारने का कार्य खुद तो बहुत लगन से किया ही, साथ ही अन्य भाषा-साधकों को भी इस कार्य की ओर प्रवृत किया। द्विवेदीजी की प्रेरणा से कामता प्रसाद गुरु ने 'हिन्दी व्याकरण' के नाम से एक वृहद व्याकरण लिखा।
(5) छायावाद युग (1918-36) व छायावादोत्तर युग (1936 के बाद) में हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में कोई आंदोलनात्मक प्रयास तो नहीं हुआ, किन्तु भाषा का मानक रूप अपने-आप स्पष्ट होता चला गया।
(6) स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार-विमर्श शुरू किया क्योंकि संविधान ने इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष योगदान रहा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के माध्यम से 'भारतीय हिन्दी परिषद' का तथा शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।
भारतीय हिन्दी परिषद : भाषा के सर्वागीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने ही उठाया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा, डॉ० माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे। धीरेन्द्र वर्मा ने 'देवनागरी लिपि चिह्नों में एकरूपता', हरदेव बाहरी ने 'वर्ण विन्यास की समस्या', ब्रजेश्वर शर्मा ने 'हिन्दी व्याकरण' तथा माता प्रसाद गुप्त ने 'हिन्दी शब्द-भंडार का स्थरीकरण' विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय : केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने लिपि के मानकीकरण पर अधिक ध्यान दिया और 'देवनागरी' लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण (1983 ई०) का प्रकाशन किया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन
उद्देश्य : UNO की भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना।
क्रम | तिथि | आयोजन स्थल |
---|---|---|
पहला | 10-14 जनवरी, 1975 | नागपुर (भारत); अध्यक्ष-शिवसागर राम गुलाम (मारिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति), उद्घाटन-इंदिरा गाँधी |
दूसरा | 28-30 अगस्त, 1976 | पोर्ट लुई (मारिशस) |
तीसरा | 28-30 अक्टूबर, 1983 | नई दिल्ली (भारत) |
चौथा | 02-04 दिसम्बर, 1993 | पोर्ट लुई (मारिशस) |
पांचवां | 04-08 अप्रैल, 1996 | पोर्ट ऑफ स्पेन (ट्रिनिडाड एवं टोबैगो) |
छठा | 14-18 सितम्बर, 1999 | लन्दन (ब्रिटेन) |
सातवां | 05-09 जून, 2003 | पारामारिबो (सूरीनाम) |
आठवां | 13-15 जुलाई, 2007 | न्यूयार्क (अमेरिका) |
नवां | 22-24 सितम्बर, 2012 | जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) |
दसवां | 10-12 सितम्बर, 2015 | भोपाल (भारत) |