अपठित गद्यांश को हल करने संबंधी आवश्यक
बिंदु –
विद्यार्थी को गद्यांश ध्यान से पढ़ना
चाहिए ताकि उसका अर्थ स्पष्ट हो सके।
तत्पश्चात् गद्यांश से संबंधित प्रश्नों
का अध्ययन करें।
फिर इन प्रश्नों के संभावित उत्तर गद्यांश
में खोजें।
प्रश्नों के उत्तर गद्यांश पर आधारित
होने चाहिए।
उत्तरों की भाषा सहज, सरल व स्पष्ट होनी
चाहिए।
गत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए
प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
1. लोकतंत्र के तीनों पायों-विधायिका,
कार्यपालिका और न्यायपालिका का अपना-अपना महत्त्व है, किंतु जब प्रथम दो अपने मार्ग
या उद्देश्य के प्रति शिथिल होती हैं या संविधान के दिशा-निर्देशों की अवहेलना करती
हैं, तो न्यायपालिका का विशेष महत्त्व हो जाता है। न्यायपालिका ही है जो हमें आईना
दिखाती है, किंतु आईना तभी उपयोगी होता है, जब उसमें दिखाई देने वाले चेहरे की विद्रूपता
को सुधारने का प्रयास हो।
सर्वोच्च न्यायालय के अनेक जनहितकारी
निर्णयों को कुछ लोगों ने न्यायपालिका की अतिसक्रियता माना, पर जनता को लगा कि न्यायालय
सही है। राजनीतिक चश्मे से देखने पर भ्रम की स्थिति हो सकती है। प्रश्न यह है कि जब
संविधान की सत्ता सर्वोपरि है, तो उसके अनुपालन में शिथिलता क्यों होती है। राजनीतिक-दलगत
स्वार्थ या निजी हित आड़े आ जाता है और यही भ्रष्टाचार को जन्म देता है।
हम कसमें खाते हैं जनकल्याण की और कदम
उठाते हैं आत्मकल्याण के। ऐसे तत्वों से देश को, समाज को सदा खतरा रहेगा। अतः जब कभी
कोई न्यायालय ऐसे फैसले देता है, जो समाज कल्याण के हों और राजनीतिक ठेकेदारों को उनकी
औकात बताते हों, तो जनता को उसमें आशा की किरण दिखाई देती है। अन्यथा तो वह अंधकार
में जीने को विवश है ही।
प्रश्नः 1.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-लोकतंत्र और न्यायपालिका।
प्रश्नः 2.
लोकतंत्र में न्यायपालिका कब विशेष महत्त्वपूर्ण
हो जाती है? क्यों?
उत्तर:
लोकतंत्र में न्यायपालिका तब महत्त्वपूर्ण
हो जाती है जब विधायिका और कार्यपालिका अपने मार्ग या उद्देश्य के प्रति शिथिल होती
है या संविधान के दिशानिर्देशों की अवहेलना होती है।
प्रश्नः 3.
आईना दिखाने का तात्पर्य क्या है ? और
न्यायपालिका कैसे आईना दिखाती है?
उत्तर:
‘आईना
दिखाने’
से तात्पर्य है-असलियत बताना। न्यायपालिका अपने निर्णयों से कार्यपालिका व विधायिका
को उनकी सीमाओं व कर्तव्यों का स्मरण कराती है।
प्रश्नः 4.
‘चेहरे
की विद्रूपता’
से क्या तात्पर्य है और यह संकेत किनके प्रति किया गया है?
उत्तर:
इसका तात्पर्य है कि चेहरे पर ओढ़ा हुआ
कुटिल उपहास। कार्यपालिका व विधायिका जनकल्याण के नाम कार्य करके अपने हित साधती हैं।
प्रश्नः 5.
भ्रष्टाचार का जन्म कब और कैसे होता है
?
उत्तर:
भ्रष्टाचार का जन्म तब होता है जब राजनीतिक
दल स्वार्थ या निजी हित के चक्कर में जनकल्याण के नाम पर आत्मकल्याण के कार्य करते
हैं।
प्रश्नः 6.
जनता को आशा की किरण कहाँ और क्यों दिखाई
देती है?
उत्तर:
जनता को आशा की किरण न्यायपालिका से दिखाई
देती है क्योंकि न्यायालय ही समाज कल्याण के फैसले लेकर राजनीतिक ठेकेदारों को उनकी
औकात बताते हैं।
2. शिक्षा के क्षेत्र में पुनर्विचार
की आवश्यकता इतनी गहन है कि अब तक बजट, कक्षा, आकार, शिक्षक-वेतन और पाठ्यक्रम आदि
के परंपरागत मतभेद आदि प्रश्नों से इतनी दूर निकल गई है कि इसको यहाँ पर विवेचित नहीं
किया जा सकता। द्वितीय तरंग दूरदर्शन तंत्र की तरह (अथवा उदाहरण के लिए धूम्र भंडार
उद्योग) हमारी जनशिक्षा प्रणालियाँ बड़े पैमाने पर प्रायः लुप्त हैं। बिलकुल मीडिया
की तरह शिक्षा में भी कार्यक्रम विविधता के व्यापक विस्तार और नये मार्गों की बहुतायत
की आवश्यकता है।
केवल आर्थिक रूप से उत्पादक भूमिकाओं
के लिए ही निम्न विकल्प पद्धति की जगह उच्च विकल्प पद्धति को अपनाना होगा यदि नई थर्ड
वेव सोसायटी में शिष्ट जीवन के लिए विद्यालयों में लोग तैयार किए जाते हैं। शिक्षा
और नई संचार प्रणाली के छह सिद्धांतों-पारस्परिक क्रियाशीलता, गतिशीलता, परिवर्तनीयता,
संयोजकता, सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकरण के बीच बहुत ही कम संबंध खोजे गए हैं।सबसे
अच्छे ऑनलाइन कोर्स
अब भी भविष्य की शिक्षा पद्धति और भविष्य
की संचार प्रणाली के बीच संबंध की उपेक्षा करना उन शिक्षार्थियों को धोखा देना है जिनका
निर्माण दोनों से होना है। सार्थक रूप से शिक्षा की प्राथमिकता अब मात्र माता-पिता,
शिक्षकों एवं मुट्ठी भर शिक्षा सुधारकों के लिए ही नहीं है, बल्कि व्यापार के उस आधुनिक
क्षेत्र के लिए भी प्राथमिकता में है जब से वहाँ सार्वभौम प्रतियोगिता और शिक्षा के
बीच संबंध को स्वीकारने वाले नेताओं की संख्या बढ़ रही है। दूसरी प्राथमिकता कंप्यूटर
वृद्धि, सूचना तकनीक और विकसित मीडिया के त्वरित सार्वभौमीकरण की है।
कोई भी राष्ट्र 21वीं सदी के इलेक्ट्रॉनिक
आधारिक संरचना, एंब्रेसिंग कंप्यूटर्स, डाटा संचार और अन्य नवीन मीडिया के बिना 21वीं
सदी की अर्थव्यवस्था का संचालन नहीं कर सकता। इसके लिए ऐसी जनसंख्या की आवश्यकता है
जो इस सूचनात्मक आधारिक संरचना से परिचित हो, ठीक उसी प्रकार जैसे कि समय के परिवहन
तंत्र और कारों, सड़कों, राजमार्गों, रेलों से सुपरिचित है।
वस्तुतः सभी के टेलीकॉम इंजीनियर अथवा
कंप्यूटर विशेषज्ञ बनने की ज़रूरत नहीं है, जैसा कि सभी के कार मैकेनिक होने की आवश्यकता
नहीं है, परंतु संचार प्रणाली का ज्ञान कंप्यूटर, फैक्स और विकसित दूर संचार को सम्मिलित
करते हुए उसी प्रकार आसान और मुफ्त होना चाहिए जैसा कि आज परिवहन प्रणाली के साथ है।
अत: विकसित अर्थव्यवस्था चाहने वाले लोगों का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि सर्वव्यापकता
के नियम की क्रियाशीलता को बढ़ाया जाए-वह है, यह निश्चित करना कि गरीब अथवा अमीर सभी
नागरिकों को मीडिया की व्यापक संभावित पहुँच से अवश्य परिचित कराया जाए।
अंततः यदि नई अर्थव्यवस्था का मूल ज्ञान
है तब सतही बातों की अपेक्षा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लोकतांत्रिक आदर्श सर्वोपरि
राजनीतिक प्राथमिकता बन जाता है।
प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-शिक्षा पर पुनर्विचार की ज़रूरत।
प्रश्नः 2.
लेखक का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
इस अंश में लेखक ज्ञान, अर्थव्यवस्था
और संचार माध्यमों के बीच नए गठबंधन के लिए तर्क प्रस्तुत करना चाहता है।
प्रश्नः 3.
इस गद्यांश का मूल विषय क्या है?
उत्तर:
इस गद्यांश का मूल विषय शिक्षा, सूचना-तकनीक
और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
प्रश्नः 4.
सर्वव्यापकता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
सर्वव्यापकता के सिद्धांत का अर्थ है-सभी
के लिए माध्यमों की उपलब्धि।
प्रश्नः 5.
शिक्षा की प्राथमिकता किन-किन के लिए
है?
उत्तर:
शिक्षा की प्राथमिकता माता-पिता, शिक्षकों,
शिक्षा सुधारकों, व्यापार के आधुनिक क्षेत्रों में है।
प्रश्नः 6.
आज कैसी संचार प्रणाली का ज्ञान होना
चाहिए।
उत्तर:
आज ऐसी संचार प्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक
है जो व्यावहारिक कार्य जैसे कंप्यूटर, फैक्स आदि कर सके।
3. सभी मनुष्य स्वभाव से ही साहित्य-स्रष्टा
नहीं होते, पर साहित्य-प्रेमी होते हैं। मनुष्य का स्वभाव ही है सुंदर देखने का। घी
का लड्डू टेढ़ा भी मीठा ही होता है, पर मनुष्य गोल बनाकर उसे सुंदर कर लेता है। मूर्ख-से-मूर्ख
हलवाई के यहाँ भी गोल लड्डू ही प्राप्त होता है; लेकिन सुंदरता को सदा-सर्वदा तलाश
करने की शक्ति साधना के द्वारा प्राप्त होती है। उच्छृखलता और सौंदर्य-बोध में अंतर
है।
बिगड़े दिमाग का युवक परायी बहू-बेटियों
के घूरने को भी सौंदर्य-प्रेम कहा करता है, हालाँकि यह संसार की सर्वाधिक असुंदर बात
है। जैसा कि पहले ही बताया गया है, सुंदरता सामंजस्य में होती है और सामंजस्य का अर्थ
होता है, किसी चीज़ का बहुत अधिक और किसी का बहुत कम न होना। इसमें संयम की बड़ी ज़रूरत
है। इसलिए सौंदर्य-प्रेम में संयम होता है, उच्छृखलता नहीं।
इस विषय में भी साहित्य ही हमारा मार्ग-दर्शक
हो सकता है। जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता उसे दूसरे से भी सद्भावना
की आशा नहीं करनी चाहिए। मनुष्य कुछ ऐसी जटिलताओं में आ फँसा है कि उसके भावों को ठीक-ठीक
पहचानना हर समय सुकर नहीं होता। ऐसी अवस्था में हमें मनीषियों के चिंतन का सहारा लेना
पड़ता है। इस दिशा में साहित्य के अलावा दूसरा उपाय नहीं है।
मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य है
और उसे मनुष्य पद का अधिकारी बने रहने के लिए साहित्य ही एकमात्र सहारा है। यहाँ साहित्य
से हमारा मतलब उसकी सब तरह ही सात्त्विक चिंतन-धारा से है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-साहित्य और सौंदर्य-बोध।
प्रश्नः 2.
साहित्य स्रष्टा और साहित्य प्रेमी से
क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
साहित्य स्रष्टा वे व्यक्ति होते हैं
जो साहित्य का सृजन करते हैं। साहित्य प्रेमी साहित्य का आस्वादन करते हैं।
प्रश्नः 3.
लड्डू का उदाहरण क्यों दिया गया है?
उत्तर:
लेखक ने लड्डू का उदाहरण मनुष्य के सौंदर्य
प्रेम के संदर्भ में दिया है। लड्डू की तासीर मीठी होती है चाहे वह गोल हो या टेढ़ा-मेढ़ा
परंतु मनुष्य उन्हें गोल बनाकर उसके सौंदर्य को बढ़ा देता है।
प्रश्नः 4.
लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात किसे
माना है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात परायी
बहू-बेटियों को घूरना बताया है क्योंकि यह सौंदर्य बोध के नाम पर उच्छृखलता है।
प्रश्नः 5.
जीवन में संयम की ज़रूरत क्यों है ?
उत्तर:
जीवन में संयम की ज़रूरत है क्योंकि संयम
से ही सामंजस्य का भाव उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य दूसरों की भावना का आदर कर सकता
है।
प्रश्नः 6.
हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता
क्यों पड़ती है?
उत्तर:
हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता
पड़ती है क्योंकि जीवन की जटिलताओं में फँसने के कारण हम दूसरे के भावों को सही से
नहीं समझ पाते। साहित्य ही इस समस्या का समाधान है।
4. वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं औद्योगिक
प्रगति के पूर्व के मनोरंजन एवं आज के युग में उपलब्ध मनोरंजन में तथा इससे संबंधित
हमारी आवश्यकताओं एवं अभिरुचि में बहुत अधिक अंतर आ गया है। पहले मनोरंजन का उद्देश्य
मात्र मनोरंजन होता था और यह प्रक्रिया धार्मिक एवं सामाजिक भावों से संलग्न थी। ऐसा
मनोरंजन व्यक्तित्व के गठन एवं स्वस्थ दृष्टिकोण के उन्नयन में सहायक होता था किंतु
आज इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ‘अर्थप्राप्ति’ हो गया है।
संभवतः इसी कारण मनोरंजन का स्वरूप पूर्णतः
बदल गया है। आधुनिक परिवेश में मनोरंजन का जो भी रूप उपलब्ध है, वह हमारे व्यक्तित्व
के गठन पर कुठाराघात करता है, आदर्शों को झुठलाता है, अस्वस्थ अभिरुचि एवं दृष्टिकोण
को प्रोत्साहन देता है या जीवन के सब्जबाग दिखाता है जो जीने योग्य नहीं है। यह रूप
व्यक्ति, समाज और विशेषकर हमारी भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है।
मनोरंजन से संबद्ध विभिन्न संस्थाएँ-अभद्र
सिनेमा नृत्यशालाएँ, फ़ैशन परेड आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति एवं समाज
के जीवन को विकृत कर रहे हैं। बड़े-बड़े नगरों की नृत्यशालाओं एवं नाइट क्लबों में
मनोरंजन के नाम पर जो गतिविधियाँ संपन्न होती हैं वे तथाकथित आधुनिक एवं प्रगतिशील
विचारधारा से भले ही समर्थित हों, किंतु स्वस्थ भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार तो वे पश्चिमी
देशों की अंधी नकल ही हैं।
इनके समर्थक यह भूल जाते हैं कि उनका
मानसिक गठन, संस्कार, रीति-रिवाज तथा जीवन-पद्धति पश्चिमी देशों से एकदम भिन्न है।
इस प्रकार देश में मनोरंजन के नाम पर जो भी भौंडापन उपलब्ध है-वह विघटन का स्रोत है,
विकारों का जनक है एवं क्षयग्रस्त जीवन का पर्याय है।
प्रश्नः 1.
वैज्ञानिक प्रगति से पूर्व और बाद के
मनोरंजन के स्वरूप और हमारी सोच में मूल अंतर क्या है?
उत्तर:
वैज्ञानिक प्रगति से पूर्व और बाद के
मनोरंजन के स्वरूप और हमारी सोच में यह मूल परिवर्तन आया है कि पहले मनोरंजन का उद्देश्य
केवल मनोरंजन था, परंतु आज इसका उद्देश्य धन कमाना भी हो गया है।
प्रश्नः 2.
आधुनिक मनोरंजन जीवन को कैसे प्रभावित
कर रहा है?
उत्तर:
आधुनिक मनोरंजन आदर्शों को झुठलाकर अस्वस्थ
अभिरुचि व दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है। यह ऐसे जीवन के सब्जबाग दिखाता है जो जीने
योग्य नहीं है।
प्रश्नः 3.
कैसे कहा जा सकता है कि मनोरंजन का एक
विशेष स्वरूप भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है?
उत्तर:
आज मनोरंजन से संबद्ध अनेक संस्थाएँ जैसे;
अभद्र सिनेमा, नृत्यशालाएँ, फैशन परेड आदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति
व समाज के जीवन को विकृत कर रहे हैं। अस्वस्थ अभिरुचि व दृष्टिकोण को बढ़ाने वाला यह
मनोरंजन भावी पीढ़ी को भ्रमित कर रहा है।
प्रश्नः 4.
पश्चिमी देशों का अंधानुकरण किसे कहा
है और क्यों?
उत्तर:
लेखक कहता है कि महानगरों की नृत्यशालाएँ,
नाइटक्लब, पश्चिमी देशों का अंधानुकरण है। इनमें मनोरंजन के नाम गलत गतिविधियाँ संपन्न
होती हैं।
प्रश्नः 5.
मनोरंजन के नाम पर ‘भौंडापन’ किसे कहा गया है? उसके क्या परिणाम हुए हैं?
उत्तर:
मनोरंजन के नाम पर भौंडापन अभद्र सिनेमा,
फैशन परेड, नाइटक्लब, नृत्यशालाओं द्वारा प्रस्तुत गतिविधियों में दिखता है। इनका गठन,
संस्कार, रीतिरिवाज तथा जीवन पद्धति भारत से अलग है। यह भौंडापन विघटन का स्रोत है,
विकारों का जनक है तथा क्षयग्रस्त जीवन का स्रोत है।
प्रश्नः 6.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-मनोरंजन पर पाश्चात्य प्रभाव।
5. असंगठित होने के वाबजूद रेहड़ी पटरी
कारोबारी शहरी अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंग हैं, जो शहरी आबादी को विशेषकर आम आदमी को
उनकी ज़रूरत की चीजें और सुविधाएँ सस्ती दरों पर उपलब्ध कराते हैं। देश की अर्थव्यवस्था
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले रेहड़ी पटरी व्यवसायी और फेरीवाले समाज में हमेशा
से हाशिए पर रहे हैं। रेहडी पटरी कारोबारी वे लोग होते हैं जो औपचारिक क्षेत्र में
नियमित काम नहीं पा सकते क्योंकि उनकी शिक्षा और कौशल का स्तर बहुत ही कम होता है।
वे अपनी जीविका की समस्या मामूली वित्तीय
संसाधनों और परिश्रम से दूर करते हैं। हमारे देश में रेहड़ी पटरी व्यवसाय न केवल उपभोक्ताओं
के व्यापक हित की दृष्टि से बल्कि रोजगार सृजन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह एक
ऐसा क्षेत्र है जिसमें न केवल न्यूनतम पूँजी से रोज़गार का सृजन होता है बल्कि यह उपभोक्ताओं
को भी कम से कम कीमत पर उनकी ज़रूरत की चीजें उपलब्ध कराता है।
दुनियाभर में रेहड़ी पटरी पर कारोबार
होता है। विकसित देशों में वर्षों से खुदरा व्यापार करने वाले छोटे कारोबारियों को
न सिर्फ कानून का संरक्षण मिला हुआ है बल्कि इस प्राचीन कारोबारी प्रणाली को कानून
की हदों में बाँधकर रखा गया है लेकिन हमारे देश में अब जाकर एक ऐसा कानून बना है जिसके
जरिये इस पुरानी कारोबारी परंपरा को नियमित करने तथा इस कारोबार में लगे लोगों को अधिकार
देने का प्रावधान किया गया है।
रेहड़ी-पटरी आजीविका संरक्षण और फेरी
विनियमन कानून का उद्देश्य देश के दो करोड़ से अधिक रेहड़ी पटरी कारोबारियों को उचित
और पारदर्शी माहौल में बिना किसी भय प्रताड़ना के कारोबार करने का माहौल तैयार करना
है, ताकि वे अपना काम गरिमा के साथ कर सकें। यह कानून लगभग एक करोड़ परिवारों को आजीविका
की सुरक्षा देने के उद्देश्य से तैयार किया है।
प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-रेहड़ी पटरी कारोबारियों की दशा।
प्रश्नः 2.
रेहड़ी पटरी वालों की शहर में क्या भूमिका
है?
उत्तर:
रेहड़ी पटरी वाले कारोबारी शहरी अर्थव्यवस्था
का प्रमुख अंग हैं। ये आम आदमी को उनकी ज़रूरत की चीजें और सुविधाएँ सस्ती दरों पर
उपलब्ध कराते हैं।
प्रश्नः 3.
रोज़गार सृजन में रेहड़ी पटरी व्यवसाय
का योगदान बताइए।
उत्तर:
रोजगार सृजन में रेहड़ी पटरी वालों की
भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसमें बहुत कम पूँजी लगती है तथा यह कम कीमत पर उपभोक्ताओं
की ज़रूरत का सामान उपलब्ध कराता है।
प्रश्नः 4.
विदेशों में इनकी क्या स्थिति है ?
उत्तर:
दुनियाभर में रेहड़ी पटरी पर कारोबार
होता है। वहाँ उन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त है। विकसित देशों ने इस प्राचीन कारोबारी
व्यवस्था को कारोबारी हदों में बाँध रखा है।
प्रश्नः 5.
भारत में नए कानून का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
भारत सरकार ने रेहड़ी पटरी वालों को कानूनी
संरक्षण दिया है। रेहड़ी पटरी आजीविका संरक्षण और फेरी विनियमन कानून का उद्देश्य देश
के दो करोड़ से अधिक रेहड़ी पटरी कारोबारियों को उचित व पारदर्शी माहौल में बिना किसी
प्रताड़ना के कारोबार करने का माहौल तैयार करना है ताकि वे अपना काम गरिमा के साथ कर
सकें।
प्रश्नः 6.
समाज में रेहड़ी-फेरीवालों की दशा कैसी
है?
उत्तर:
समाज में रेहड़ी-फेरी वालों की दशा सही
नहीं है। वे हाशिए पर हैं। उन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं हैं तथा व्यवसाय में
भारी दिक्कतें सामने आती हैं।
6. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक
टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों
के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें;
उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक
विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक
ज़रूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।
स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे
और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों
के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज़ और
स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने
के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे।
वे कहा करते थे, “यदि सभी मानव एक ही
धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने
लगें, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक
विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।”
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त
शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-भारतीय धर्म और संवाद।
प्रश्नः 2.
टापू किसे कहते हैं ? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘टापू’ समुद्र के मध्य उभरा भू-स्थल होता है जिसके चारों तरफ
जल होता है। वह मुख्य भूमि से अलग होता है। ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का अभिप्राय है-समाज की मुख्य धारा से कटकर
रहना।
प्रश्नः 3.
‘भारत
जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है।’ क्या जरूरी है और क्यों?
उत्तर:
भारत में अनेक धर्म, मत व संप्रदाय है।
अतः यहाँ एक-दूसरे को जानना, ज़रूरत समझना तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझना होगा। सभी
लोगों को दूसरे के धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों-अनुष्ठानों को सम्मान देना चाहिए।
प्रश्नः 4.
स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत
आगे’
क्यों कहा गया है?
उत्तर:
स्वामी विवेकानंद को अपने समय से बहुत
आगे कहा गया है क्योंकि वे जानते थे कि भारत में एक धर्म, मत या विचारधारा नहीं चल
सकती। उनमें संवाद होना अनिवार्य है।
प्रश्नः 5.
स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण
स्थिति क्या होगी और क्यों?
उत्तर:
स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण
स्थिति वह होगी जब सभी व्यक्ति एक धर्म, पूजा-पद्धति व नैतिकता का अनुपालन करने लगेंगी।
इससे यहाँ धार्मिक व आध्यात्मिक विकास रुक जाएगा।
प्रश्नः 6.
भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार
धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारत में साथ-साथ रहे चार धर्म है-हिंदू,
मुस्लिम, सिख, ईसाई। चार मत है-शैव, वैश्णव, निम्बार्क व आर्य समाजी मत।.
7. भारत प्राचीनतम संस्कृति का देश है।
यहाँ दान पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। जब दान देने को धार्मिक
कृत्य मान लिया गया तो निश्चित तौर पर दान लेने वाले भी होंगे। हमारे समाज में भिक्षावृत्ति
की ज़िम्मेदारी समाज के धर्मात्मा, दयालु व सज्जन लोगों की है। भारतीय समाज में दान
लेना व दान देना-दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। कुछ भिखारी खानदानी होते हैं क्योंकि
पुश्तों से उनके पूर्वज धर्म स्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं।
कुछ भिखारी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं
जो देश में छोटी-सी विपत्ति आ जाने पर भीख का कटोरा लेकर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं।
इसके अलावा अनेक श्रेणी के और भी भिखारी होते हैं। कुछ भिखारी परिस्थिति से बनते हैं
तो कुछ बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भी। इस व्यवसाय में आ गए हैं। जन्मजात भिखारी
अपने स्थान निश्चित रखते हैं। कुछ भिखारी अपनी आमदनी वाली जगह दूसरे भिखारी को किराए
पर देते हैं।
आधुनिकता के कारण अनेक वृद्ध मज़बूरीवश
भिखारी बनते हैं। गरीबी के कारण बेसहारा लोग भीख माँगने लगते हैं। काम न मिलना भी भिक्षावृत्ति
को जन्म देता है। कुछ अपराधी बच्चों को उठा ले जाते हैं तथा उनसे भीख मँगवाते हैं।
वे इतने हैवान हैं कि भीख माँगने के लिए बच्चों का अंग-भंग भी कर देते हैं। भारत में
भिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में थे।
इंद्र ने कर्ण से अर्जुन की रक्षा के
लिए उनके कवच व कुंडल ही भीख में माँग लिए। विष्णु ने वामन अवतार लेकर भीख माँगी। धर्मशास्त्रों
ने दान की महिमा का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जिसके कारण भिक्षावृत्ति को भी धार्मिक
मान्यता मिल गई। पूजा-स्थल, तीर्थ, रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, गली-मुहल्ले आदि हर जगह
भिखारी दिखाई देते हैं। इस कार्य में हर आयु का व्यक्ति शामिल है।
साल-दो साल के दुध मुँहे बच्चे से लेकर
अस्सी-नब्बे वर्ष के बूढ़े तक को भीख माँगते देखा जा सकता है। भीख माँगना भी एक कला
है, जो अभ्यास या सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जा सकती है। अपराधी बाकायदा इस काम की ट्रेनिंग
देते हैं। भीख रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर भी माँगी जाती है। भीख माँगने के
लिए इतना आवश्यक है कि दाता के मन में करुणा जगे। अपंगता, कुरूपता, अशक्तता, वृद्धावस्था
आदि देखकर दाता करुणामय होकर परंपरानिर्वाह कर पुण्य प्राप्त करता है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का समुचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-भिक्षावृत्ति एक व्यवसाय।
प्रश्नः 2.
“भारत
में भिक्षा का इतिहास प्राचीन है”-सप्रमाण
सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
भारत में भिक्षावृत्ति का इतिहास पुराना
है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में हैं। इंद्र ने अर्जुन की रक्षा के
लिए कर्ण से कवच व कुंडल की भिक्षा माँगी जबकि विष्णु ने वामन अवतार में भीख माँगी।
धर्मशास्त्रों से भिक्षावृत्ति को धार्मिक मान्यता मिली।
प्रश्नः 3.
“भीख
माँगना एक कला है”-इस
कला के विविध रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भीख माँगना एक कला है जो अभ्यास व सूक्ष्म
निरीक्षण से सीखी जाती है। रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर, अपंगता, अशक्तता आदि
के जरिए दूसरे के मन में करुणा जगाकर भीख माँगी जाती है।
प्रश्नः 4.
समाज में भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी
मान्यताएँ किस प्रकार सहायक होती हैं?
उत्तर:
भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी धार्मिक
मान्यताएँ सहायक हैं। भारत में दान देना व लेना दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। दान-पुण्य
को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। अतः भिक्षुकों का होना लाजिमी है।
प्रश्नः 5.
भिखारी व्यवसाय के विभिन्न स्वरूपों का
उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भिखारी व्यवसाय में कुछ भिखारी खानदानी
हैं जो कई पीढ़ियों से धर्मस्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं। कुछ अंतर्राष्ट्रीय
भिखारी हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आने पर भीख माँगने विदेश चले जाते हैं। कुछ
परिस्थितिवश तथा कुछ अपराधियों द्वारा बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भिखारी भी होते
हैं।
प्रश्नः 6.
भिखारी दाता के मन में किस भाव को जगाते
हैं और क्यों?
उत्तर:
भिखारी अपनी अशक्तता, कुरूपता, अपंगता,
वृद्धावस्था आदि के जरिए दाता के मन में करुणाभाव जगाते हैं ताकि वे दान देकर अपनी
परंपरा का निर्वाह कर सकें।
8. गांधी जी को अस्पृश्यता से घृणा थी।
बचपन से बालक मोहन के मन में अपनी माँ के प्रति स्नेह सम्मान होने के बावजूद उस छोटी
आयु में भी अपनी माँ की उस बात का विरोध किया जब उनकी माँ ने सफ़ाई करने वाले कर्मचारी
के न छूने और उससे दूर रहने के लिए कहा था। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि स्वच्छता और
सफ़ाई प्रत्येक व्यक्ति का काम है। वह हाथ से मैला ढोने और किसी एक जाति के लोगों द्वारा
ही सफ़ाई करने की प्रथा को समाप्त करना चाहते थे।
उन्होंने भारतीय समाज में सदियों से मौजूद
अस्पृश्यता की कुरीति और जातीय प्रथा का विरोध किया। सफाई करने वाले जाति के लोगों
को गाँवों से बाहर रखा जाता था और उनकी बस्तियाँ बहुत ही खराब, मलीन और गंदगी से भरी
हुई थीं। समाज में हेय समझे जाने, गरीबी और शिक्षा की कमी की वजह से वह ऐसी बुरी स्थिति
में रहते थे। गांधी जी उन मलिन बस्तियों में गये और उन्होंने अस्पृश्य समझे जाने वाले
लोगों को गले लगाया और अपने साथ गए अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी वैसा करने के
लिए कहा।
गांधी जी चाहते थे कि इन लोगों की स्थिति
सुधरे ओर वह भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हों। उन्होंने पूरे भारत में छात्रों सहित
सभी से ऐसी मलिन बस्तियों के लोगों की मदद करने के लिए कहा। गांधी जी ने भारतीय समाज
में सफाई करने और मैला ढोने वालों द्वारा किये जाने वाले अमानवीय कार्य पर तीखी टिप्पणी
की। उन्होंने कहा, ‘हरिजनों में गरीब सफ़ाई करने वाला या ‘भंगी’ समाज में सबसे नीचे खड़ा है, जबकि वह सबसे महत्त्वपूर्ण
है।
अपरिहार्य होने के नाते समाज में उसका
सम्मान होना चाहिए ‘भंगी’
जो समाज की गंदगी साफ़ करता है उसका स्थान माँ की तरह होता है। जो काम एक भंगी दूसरे
लोगों की गंदगी साफ़ करने के लिए करता है वह काम अगर अन्य लोग भी करते तो यह बुराई
कब की समाप्त हो जाती’।
(गांधी वाङ्मय, भाग-54, पृष्ठ 109)।
प्रश्नः 1.
उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-गांधी जी का अस्पृश्यता उन्मूलन
कार्यक्रम।
प्रश्नः 2.
गांधी जी ने बचपन में अपनी माँ का विरोध
किस बात पर किया?
उत्तर:
गांधी जी की माँ ने उन्हें सफ़ाई करने
वाले कर्मचारी को न छूने तथा उससे दूर रहने के लिए कहा था। इसी बात का गांधी जी ने
विरोध किया था। वे इसे गलत मानते थे।
प्रश्नः 3.
गांधी जी किस प्रथा को समाप्त करना चाहते
थे?
उत्तर:
गांधी जी मैला ढोने व अस्पृश्यता को समाप्त
करना चाहते थे। उनका मानना था कि स्वच्छता व सफ़ाई प्रत्येक व्यक्ति का काम है। वह
हाथ से मैला ढोने तथा किसी एक जाति के लोगों द्वारा ही सफ़ाई करने की प्रथा को समाप्त
करना चाहते थे।
प्रश्नः 4.
सफाई कर्मियों की समाज में कैसी स्थिति
थी?
उत्तर:
सफ़ाई करने वाली जाति के लोगों का निवास
गाँव के बाहर होता था तथा उनकी बस्तियाँ बहत ही खराब, मलीन व गंदगी से भरी हुई थी।
समाज में हेय समझे जाने, गरीबी और शिक्षा की कमी की वजह से वह ऐसी हीन दशा में रहते
थे।
प्रश्नः 5.
गांधी जी की इच्छा क्या थी?
उत्तर:
गांधीजी की इच्छा थी कि समाज के इस वर्ग
की स्थिति में सुधार हो तथा इन्हें मुख्य धारा में शामिल किया जाए। उन्होंने भारत के
सभी लोगों से इन मलिन बस्तियों की मदद करने का आह्वान किया।
प्रश्नः 6.
भंगी के विषय में गांधी जी की क्या टिप्पणी
थी?
उत्तर:
भंगी के विषय में गांधी जी की टिप्पणी
थी कि यह वर्ग समाज में निचले पायदान पर है, जबकि यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस
वर्ग का सम्मान होना चाहिए। उन्होंने इस वर्ग की तुलना माँ से की।
9. बड़ी कठिन समस्या है। झूठी बातों को
सुनकर चुप हो कर रहना ही भले आदमी की चाल है, परंतु इस स्वार्थ और लिप्सा के जगत में
जिन लोगों ने करोड़ों के जीवन-मरण का भार कंधे पर लिया है वे उपेक्षा भी नहीं कर सकते।
ज़रा सी गफलत हुई कि सारे संसार में आपके विरुद्ध जहरीला वातावरण तैयार हो जाएगा। आधुनिक
युग का यह एक बड़ा भारी अभिशाप है कि गलत बातें बड़ी तेजी से फैल जाती हैं।
समाचारों के शीघ्र आदान-प्रदान के साधन
इस युग में बड़े प्रबल हैं, जबकि धैर्य और शांति से मनुष्य की भलाई के लिए सोचने के
साधन अब भी बहुत दुर्बल हैं। सो, जहाँ हमें चुप होना चाहिए, वहाँ चुप रह जाना खतरनाक
हो गया है। हमारा सारा साहित्य नीति और सच्चाई का साहित्य है। भारतवर्ष की आत्मा कभी
दंगाफसाद’
और टंटे को पसंद नहीं करती परंतु इतनी तेजी से कूटनीति और मिथ्या का चक्र चलाया जा
रहा है कि हम चुप नहीं बैठ सकते।
अगर लाखों-करोड़ों की हत्या से बचना है
तो हमें टंटे में पड़ना ही होगा। हम किसी को मारना नहीं चाहते पर कोई हम पर अन्याय
से टूट पड़े तो हमें ज़रूर कुछ करना पड़ेगा। हमारे अंदर हया है और अन्याय करके पछताने
की जो आदत है उसे कोई हमारी दुर्बलता समझे और हमें सारी दुनिया के सामने बदनाम करे
यह हमसे नहीं सहा जाएगा। सहा जाना भी नहीं चाहिए। सो, हालत यह है कि हम सच्चाई और भद्रता
पर दृढ़ रहते हैं और ओछे वाद-विवाद और दंगे-फसादों में नहीं पड़ते।
राजनीति कोई अजपा-जाप तो है नहीं। यह
स्वार्थों का संघर्ष है। करोड़ों मनुष्यों की इज्जत और जीवन-मरण का भार जिन्होंने उठाया
है वे समाधि नहीं लगा सकते। उन्हें स्वार्थों के संघर्ष में पड़ना ही पड़ेगा और फिर
भी हमें स्वार्थी नहीं बनना है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-अन्याय का प्रतिकार।
प्रश्नः 2.
लेखक ने किसे कठिन समस्या माना है और
क्यों?
उत्तर:
लेखक ने बताया है कि अफवाहों के दौर में
शांत रहना बहुत कठिन है क्योंकि राजनीति अफवाहों के जरिए दंगे करवाती है। ऐसी स्थिति
में संघर्ष अनिवार्य है।
प्रश्नः 3.
आधुनिक युग का अभिशाप किसे माना गया है
और क्यों?
उत्तर:
आधुनिक युग का अभिशाप गलत बातों का तेज़ी
से फैलना है क्योंकि गलत बात का प्रचार संचार साधन तेज़ी से करते हैं और भलाई के साधन
सीमित है।
प्रश्नः 4.
चुप रहना कब खतरनाक होता है, कैसे?
उत्तर:
लेखक का मानना है कि गलत प्रचार पर चुप
रहना खतरनाक होता है क्योंकि दंगा-फसाद आदि से लाखों की हत्या हो सकती है। अतः उनका
विरोध करना अनिवार्य हो जाता है।
प्रश्नः 5.
भारतवर्ष की कोई एक विशेषता गद्यांश के
आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतवर्ष की विशेषता है कि वह दंगा-फसाद
व टंटे को पसंद नहीं करता। वह स्वार्थ को दूर रखता है, परंतु अन्यायी को नष्ट करता
है।
प्रश्नः 6.
लेखक ने संघर्ष करना क्यों आवश्यक माना
है ?
उत्तर:
लेखक ने संघर्ष को आवश्यक माना है, क्योंकि
जन की हानि से बचने के लिए दुष्टों का अंत करना अनिवार्य है।
10. आप एक ऐसे मुल्क में हैं, जहाँ करोड़ों
युवा बसते हैं। इनमें से कई बेरोज़गार हैं, तो कई कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर रहे हैं।
ये सब पैसा कमाने की ख्वाहिश रखते हैं, ताकि ये सभी अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी को चला
सकें और भविष्य को बेहतर बना सकें। ऐसे लोगों से आप यह उम्मीद कैसे रख सकती है कि वे
समाजसेवा के कार्यों में रुचि लेंगे? यह उन कई मुश्किल सवालों में से एक है, जिनका
सामना शिक्षाविद सूसन स्ट्रॉड को भारत में करना पड़ा। उन्होंने अमेरिका में ‘राष्ट्रीय
युवा सेवा संगठन, अमेरिका’
की स्थापना की है।
सूसन का मकसद युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल
एक रणनीति के तहत राष्ट्रीय विकास, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी की समस्या
से निपटने के लिए करना है, लेकिन क्या विकासशील देशों के युवा मुफ्त में वह काम करना
चाहेंगे? क्या ये लोग अपनी पढ़ाई या कैरियर को दरकिनार कर न्यूनतम वेतन पर ऐसी किसी
मुहिम से जुड़ेंगे? प्रोत्साहन कहाँ है? इसके जवाब में सुश्री स्ट्रॉड कहती हैं, “मैं
सोचती हूँ कि ऐसे कुछ तरीके हैं, जिनसे भारत जैसे बेरोज़गारी से जूझ रहे देशों में
भी युवाओं की सेवाएँ ली जा सकती है।
“यह
पिछले साल नवंबर में दिल्ली में हुए स्वयंसेवी प्रयासों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के
सम्मेलन में मानद अतिथि थीं। वह कहती हैं, “युवाओं के लिए रोजगार प्राप्ति में उनके
पास नौकरी का कोई पूर्व अनुभव न होना एक सबसे बड़ी बाधा होती है। इस तथ्य को ध्यान
में रखते हुए हमने कई साल पहले दक्षिण अफ्रीका में ऐसे बेरोज़गार युवाओं के लिए कुछ
कार्यक्रम शुरू किए, जो राजनीतिक संघर्षों में सक्रिय रहे। ये युवा स्कूलों से बाहर
हो चुके थे और रोज़गार के मौके भी गँवा चुके थे।
हमने इनके लिए कुछ कार्यक्रम तैयार किए।
मिसाल के तौर पर हमने उन्हें अश्वेतों के इलाकों में कम कीमत के मकान बनाने के काम
से जोड़ा। वहाँ इन्होंने भवन निर्माण के गुर सीखे और जाना कि एक टीम के रूप में कैसे
काम किया जाता है। इस तरह ये लोग एक हुनर में माहिर हुए और रोज़गार पाने के दावेदार
बने।”
नौकरियों से जुड़े बहुत से प्रशिक्षण कार्यक्रम अमूमन किसी खास कौशल के विकास पर केंद्रित
होते हैं, लेकिन सेवा संबंधी कार्यक्रम इनसे कुछ बढ़कर होते हैं।
इनमें शामिल लोग, ज़्यादा उपयोगी और पहल
करने वाले नागरिक होते हैं। स्ट्रॉड के मुताबिक, इनकी यह खासियत इनमें समाज के प्रति
एक ज़िम्मेदारी और प्रतिबद्धता का अहसास भरती है। युवाओं के लिए चलाए जाने वाले सेवा
संबंधी कार्यक्रमों के जरिए, उन्हें उपयोगी परियोजनाओं से जोड़ा जा सकता है और इसके
एवज में कुछ पैसा भी दिया जा सकता है। वे कहती हैं, “ज़रा 1930 के दशक के मंदी के दौर
के अपने देश को याद कीजिए।
राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी० रूजवेल्ट ने
संरक्षण कार्यक्रम चलाए। उन्होंने देश के युवाओं को, खासकर बेरोजगारों को कई तरह के
कामों से जोड़ दिया। इसका इन युवाओं और पूरे देश को जबर्दस्त फायदा हुआ।” स्ट्रॉड बताती हैं, “इन युवाओं को उनके काम के बदले में
पैसा दिया जाता था, जिसका एक हिस्सा उन्हें अपने परिवारों को देना होता था। अगर आप
अमेरिका के किसी राष्ट्रीय उद्यान में जाएँगे, तो आपको पता चलेगा कि इन लोगों ने कितनी
समृद्ध विरासत का निर्माण किया था।
इन युवाओं ने अमेरिका के ज़्यादातर राष्ट्रीय
उद्यानों का सृजन किया और वहाँ लाखों पेड़ लगाए।” ऐसे ही प्रयासों की सबसे ताजा मिसाल है ‘अमेरिका’, इसके जरिए हर साल 75 हजार युवाओं को रोजगार दिया जाता
है और इनमें से ज़्यादातर बीस से तीस आयु-वर्ग के होते हैं। कई तो बस अभी हाईस्कूल
से निकले ही होते हैं, तो कई स्कूल छोड़ चुके होते हैं और कई पी०एच०डी० भी होते हैं।
सूसन बताती हैं कि आइडिया यह होता है कि “लोग छात्रवृत्ति पाते हैं, जो न्यूनतम वेतन
से कम होती है।
इसके बदले ये युवा देश के सबसे विपन्न
इलाकों में एक या दो साल तक कई तरह के काम करते हैं।” स्ट्रॉड स्पष्ट करती हैं, “इसमें दो राय नहीं कि इस पैसे
से ये अमीर नहीं हो सकते, पर इतना ज़रूर है कि इससे इनका खर्चा आराम से चल जाता है।
साल के आखिर में इन युवाओं को 4,725 डॉलर का एक वॉउचर दिया जाता है, जिसे ये सिर्फ़
शिक्षा या प्रशिक्षण की फीस चुकाने या कॉलेज का ऋण अदा करने के लिए ही इस्तेमाल कर
सकते हैं।
“इन
युवाओं में बहुत-से मिसिसिपी और लुइसियाना में राहत का काम कर चुके हैं, जहाँ तूफ़ान
कैटरीना ने भारी तबाही मचाई थी। स्ट्रॉड का मानना है कि स्वयंसेवी संगठन और व्यक्ति
विशेष अपनी ऊर्जा और विचारों से विभिन्न योजनाओं को साकार कर सकते हैं, उन्हें कम करने
और उसे फैलाने दीजिए। “यदि आप वाकई ऐसा कुछ करना चाहते हैं, जिससे ज़्यादा-से-ज्यादा
युवाओं की जिंदगी प्रभावित हो, तो इसके लिए आपको ज्यादा-से-ज्यादा जन संसाधनों की व्यवस्था
करनी होगी।
“वे
कहती हैं, “भारत में भी युवाओं के लिए कई कार्यक्रम हैं। यहाँ एन०सी०सी० है और राष्ट्रीय
सेवा योजना भी है, जिससे पूरे देश में पाँच हजार स्वयं सेवक जुड़े हुए हैं, लेकिन वे
सवाल करती हैं कि इस योजना से सिर्फ पाँच हजार युवा ही क्यों जुड़े हुए हैं, दस लाख
क्यों नहीं? क्या इसे समाज की ज़रूरतों और रोजगार से जोड़ा गया? युवाओं को इससे जोड़ने
की मुहिम क्यों नहीं छेड़ी जाती? इस देश में गांधीवादी परंपराएँ हैं, दान और उदारता
की भावना है, जिनके दम पर बड़े पैमाने पर सेवा संबंधी कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।”
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-बेरोजगारों के लिए रोज़गार/रोज़गार
के लिए सूसन की भूमिका।
प्रश्नः 2.
भारत में करोड़ों युवाओं की कैसी स्थिति
है ?
उत्तर:
भारत में करोड़ों युवाओं में से कई तो
बेरोज़गार हैं तो कई कोई छोटा-मोटा धंधा कर रहे हैं। ये सभी पैसा कमाने की इच्छा रखते
हैं, ताकि भविष्य में जी सकें।
प्रश्नः 3.
शिक्षाविद् सूसन स्ट्रॉड को भारत में
क्या सामना करना पड़ा?
उत्तर:
शिक्षाविद् सूसर स्ट्रॉड को भारत में
कई मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ा।
प्रश्नः 4.
सूसन युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे
करती हैं?
उत्तर:
सूसन युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल एक
रणनीति के तहत राष्ट्रीय विकास, लोकतंत्र को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी की समस्या से
निपटने के लिए करती हैं।
प्रश्नः 5.
अफ्रीका में बेरोज़गार युवाओं के लिए
किस तरह के कार्यक्रम तैयार किए गए?
उत्तर:
अफ्रीका में बेरोज़गार युवाओं को अश्वेतों
के इलाके में कम कीमत के मकान बनाने के कार्यक्रम से जोड़ा गया। इससे इन्होंने भवन
निर्माण के गुर सीखे तथा टीम के रूप में काम करना सीखा।
प्रश्नः 6.
युवाओं को उपयोगी परियोजनाओं के साथ कैसे
जोड़ा जा सकता है?
उत्तर:
युवाओं को सेवा संबंधी कार्यक्रमों के
माध्यम से उपयोगी परियोजनाओं से जोड़ा जा सकता है तथा इसके एवज में इन्हें कुछ पैसा
भी दिया जा सकता है।
11. बड़ी चीजें संकटों में विकास पाती
हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं। अकबर ने तेरह
साल की उम्र में अपने पिता के दुश्मन को परास्त कर दिया था, जिसका एकमात्र कारण यह
था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था और वह भी उस समय, जब उसके पिता के पास एक
कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों
के पक्ष में थे, मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत
झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। विंस्टन चर्चिल ने कहा है
कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है।
आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने
से पैदा होते हैं। जिंदगी की दो ही सूरतें हैं। एक तो आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए
कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए और अगर असफलताएँ कदम-कदम
पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली या जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए-दूसरी
सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए, जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और
न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती
हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई देती है।
इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए
घाट का पानी पीते हैं वे जिंदगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी
जिंदगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है? अगर रास्ता आगे ही निकल रहा हो,
तो फिर असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है। साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी
होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती
है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने
वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं।
जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी
दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अडोस-पड़ोस
को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना
न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम
बनाते हैं।
प्रश्नः 1.
गद्यांश में अकबर का उदाहरण क्यों दिया
गया है?
उत्तर:
गद्यांश में लेखक अकबर के उदाहरण के माध्यम
से बताना चाहता है कि अकबर ने छोटी उम्र में दुश्मनों को परास्त किया क्योंकि उसने
संकटों को झेला था।
प्रश्नः 2.
आशय स्पष्ट कीजिए “जहाँ न तो जीत हँसती
है और न कभी हार के रोने की आवाज़ सुनाई देती है।”
उत्तर:
इसका अर्थ है कि संसार में एक ऐसा वर्ग
भी है जहाँ जीवन में कोई बदलाव नहीं आते। वे जोखिम नहीं उठाते। उन्हें हार-जीत का अहसास
नहीं होता।
प्रश्नः 3.
साहस की जिंदगी को सबसे बड़ी जिंदगी क्यों
कहा गया है?
उत्तर:
साहस की ज़िंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती
है क्योंकि वह बिलकुल निडर व बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य कभी तमाशे की परवाह नहीं
करते।
प्रश्नः 4.
दुनिया की असली ताकत किसे कहा गया है
और क्यों?
उत्तर:
दुनिया की असली ताकत वे आदमी हैं जो जनमत
की उपेक्षा करके जीते हैं। ऐसे लोग नए रास्तों पर चलकर मनुष्यता को प्रकाश देते हैं।
प्रश्नः 5.
क्रांतिकारियों के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर:
क्रांतिकारी अपने अड़ोस-पड़ोस के अनुसार
कार्य नहीं करते। वे उनसे अपनी तुलना भी नहीं करते।
प्रश्नः 6.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
शीर्षक-साहस और जिंदगी।
12. संवाद में दोनों पक्ष बोलें यह आवश्यक
नहीं। प्रायः एक व्यक्ति की संवाद में मौन भागीदारी अधिक लाभकर होती है। यह स्थिति
संवादहीनता से भिन्न है। मन से हारे दुखी व्यक्ति के लिए दूसरा पक्ष अच्छे वक्ता के
रूप में नहीं अच्छे श्रोता के रूप में अधिक लाभकर होता है। बोलने वाले के हावभाव और
उसका सलीका, उसकी प्रकृति और सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को पल भर में बता देते हैं।
संवाद से संबंध बेहतर भी होते हैं और अशिष्ट संवाद संबंध बिगाड़ने का कारण भी बनता
है।
बात करने से बड़े-बड़े मसले, अंतर्राष्ट्रीय
समस्याएँ तक हल हो जाती हैं। पर संवाद की सबसे बड़ी शर्त है एक-दूसरे की बातें पूरे
मनोयोग से, संपूर्ण धैर्य से सुनी जाएँ। श्रोता उन्हें कान से सुनें और मन से अनुभव
करें तभी उनका लाभ है, तभी समस्याएँ सुलझने की संभावना बढ़ती है और कम-से-कम यह समझ
में आता है कि अगले के मन की परतों के भीतर है क्या? । सच तो यह है कि सुनना एक कौशल
है जिसमें हम प्रायः अकुशल होते हैं।
दूसरे की बात काटने के लिए, उसे समाधान
सुझाने के लिए हम उतावले होते हैं और यह उतावलापन संवाद की आत्मा तक हमें पहुँचने नहीं
देता। हम तो बस अपना झंडा गाड़ना चाहते हैं। तब दूसरे पक्ष को झुंझलाहट होती है। वह
सोचता है व्यर्थ ही इसके सामने मुँह खोला। रहीम ने ठीक ही कहा था-“सुनि अठिलैहैं लोग
सब, बाँटि न लैहैं कोय।”
ध्यान और धैर्य से सुनना पवित्र आध्यात्मिक कार्य है और संवाद की सफलता का मूल मंत्र
है।
लोग तो पेड़-पौधों से, नदी-पर्वतों से,
पशु-पक्षियों तक से संवाद करते हैं। राम ने इन सबसे पूछा था-‘क्या आपने सीता को देखा?’
और उन्हें एक पक्षी ने ही पहली सूचना दी थी। इसलिए संवाद की अनंत संभावनाओं को समझा
जाना चाहिए।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक
दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-संवाद : एक कौशल।
प्रश्नः 2.
‘संवादहीनता’ से क्या तात्पर्य है? यह स्थिति मौन भागीदारी से कैसे
भिन्न है?
उत्तर:
संवादहीनता से तात्पर्य है-बातचीत न होना।
यह स्थिति मौन भागीदारी से बिलकुल अलग है। मौन भागीदारी में एक बोलने वाला होता है।
संवादहीनता में कोई भी पक्ष अपनी बात नहीं कहता।
प्रश्नः 3.
भाव स्पष्ट कीजिए-“यह उतावलापन हमें संवाद
की आत्मा तक नहीं पहुँचने देता।”
उत्तर:
इसका भाव यह है कि बातचीत के समय हम दूसरे
की बात नहीं सुनते। हम अपने सुझाव उस पर थोपने की कोशिश करते हैं। इससे दूसरा पक्ष
अपनी बात को समझा नहीं पाता और हम संवाद की मूल भावना को खत्म कर देते हैं।
प्रश्नः 4.
दुखी व्यक्ति से संवाद में दूसरा पक्ष
कब अधिक लाभकर होता है? क्यों?
उत्तर:
दुखी व्यक्ति से संवाद में दूसरा पक्ष
तब अधिक लाभकर होता है जब वह अच्छा श्रोता बने। दुखी व्यक्ति अपने मन की बात कहकर अपने
दुख को कम करना चाहता है। वह दूसरे की नहीं सुनना चाहता।
प्रश्नः 5.
सुनना कौशल की कुछ विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
सुनना कौशल की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(क) एक-दूसरे की बात पूरे मनोयोग से सुननी
चाहिए।
(ख) श्रोता उन्हें सुनकर मनन करें।
(ग) सही ढंग से सुनने से ही समस्या सुलझ
सकती है।
प्रश्नः 6.
हम संवाद की आत्मा तक प्राय: क्यों नहीं
पहुँच पाते?
उत्तर:
हम संवाद की आत्मा तक प्रायः इसलिए पहुँच
नहीं पाते क्योंकि हम अपने समाधान देने के लिए उतावले होते हैं। इससे हम दूसरे की बात
को समझ नहीं पाते।
13. विषमता शोषण की जननी है। समाज में
जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक,
आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान
पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है चूँकि जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो
तब पहला प्रश्न यह उठता है कि . उपभोक्ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या
है? सामान्यतः उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर
किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी
रूप में शोषण का शिकार अवश्य होते हैं।
हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक
एवं आर्थिक रूप से दुर्बल अशक्त लोगों की भीड़ है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ
पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी
भी अन्य तरह से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों
की समाजोपायोगी उर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं. जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों,
नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण
इन्हीं की देन है।
उपभोक्ता शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता
व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तएँ
एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी,
वकील सभी आते हैं। इन सबने शोषण के क्षेत्र में जो कीर्तिमान बनाए हैं वे वास्तव में
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज कराने लायक हैं।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का समुचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
शीर्षक-उपभोक्ता शोषण।
प्रश्नः 2.
‘विषमता
शोषण की जननी है’-कैसे?
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विषमता के कारण शोषण का जन्म होता है।
समाज में धन, सत्ता, धर्म आदि के आधार पर लोग बँटे हुए है। समर्थ व्यक्ति दूसरे का
शोषण कर स्वयं को बड़ा दर्शाता है। हर व्यक्ति एक जगह शोषक है दूसरी जगह शोषित।
प्रश्नः 3.
उपभोक्ता शोषण से क्या आशय है? इसकी सीमाएँ
कहाँ तक हैं?
उत्तर:
वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने वाला
उपभोक्ता होता है। व्यापारी, उत्पादक, सेवा प्रदाता वर्ग उपभोक्ता को गुमराह कर ठगते
है। इस शोषण में डॉक्टर, अफसर, दुकानदार, कंपनियाँ, वकील आदि सभी शामिल है।
प्रश्नः 4.
देश की समाजोपयोगी योजनाओं से कौन-सा
वर्ग वंचित रह जाता है और क्यों?
उत्तर:
देश की समाजोपयोगी योजनाओं से अशिक्षित,
सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग वंचित रह जाता है क्योंकि वे सिर्फ जीवनयापन तक
ही सोचते हैं। योजनाओं के लाभ अफसर, व्यवसायी व नेता लोग मिलकर खा जाते हैं।
प्रश्नः 5.
उपभोक्ता किसे कहते हैं ? उपभोक्ता शोषण
का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
जो वस्तुओं व सेवाओं का उपभोग करें, उसे
उपभोक्ता कहते है। अज्ञानता, अशक्तता आदि के कारण उपभोक्ता शोषित होता है।
प्रश्नः 6.
सामान्यतः शोषण का दोषी किसे कहा जाता
है और क्यों?
उत्तर:
सामान्यतः शोषण का दोषी सफेदपोश राजनीतिज्ञों,
नौकरशाहों, व्यापारियों व तथाकथित बुद्धिजीवियों को माना जाता है क्योंकि वे अपने सामर्थ्य
के बल पर सरकारी योजनाओं के लाभ स्वयं ले लेते हैं।
14. जो अनगढ़ है, जिसमें कोई आकृति नहीं,
ऐसे पत्थरों से जीवन को आकृति प्रदान करना, उसमें कलात्मक संवेदना जगाना और प्राण-प्रतिष्ठा
करना ही संस्कृति है। वस्तुतः संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें अनेक प्रकार
की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से मनुष्य प्राप्त करता है। संस्कृति का संबंध मुख्यतः
मनुष्य की बुद्धि एवं स्वभाव आदि मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में सांस्कृतिक विशेषताएँ
मनुष्य की मनोवृत्तियों से संबंधित हैं और इन विशेषताओं का अनिवार्य संबंध जीवन के
मूल्यों से होता है। ये विशेषताएँ या तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं अथवा मूल्यों
के उत्पादन का साधन। प्रायः व्यक्तित्व में विशेषताएँ साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों
में अर्थपूर्ण समझी जाती हैं।
वस्तुतः संस्कृति सामूहिक उल्लास की कलात्मक
अभिव्यक्ति है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समष्टि की अभिव्यक्ति है। डॉ० संपूर्णानंद
ने कहा है-“संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं, जिसमें कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं
पर दृष्टि निक्षेप करता है”
संक्षेप में वह समुदाय की चेतना बनकर प्रकाशमान होती है। यही चेतना प्राणों की प्रेरणा
है और यही भावना प्रेम में प्रदीप्त हो उठती है। यह प्रेम संस्कृति का तेजस तत्व है,
जो चारों ओर परिलक्षित होता है। प्रेम वह तत्व है, जो संस्कृति के केंद्र में स्थित
है। इसी प्रेम से श्रद्धा उत्पन्न होती है, समर्पण जन्म लेता है और जीवन भी सार्थक
लगता है।
प्रश्नः 1.
संस्कृति एक निष्प्राण पत्थर को किस प्रकार
जीवंत बना सकती है?
उत्तर:
संस्कृति एक कलाकार की भाँति अपनी संवेदना
जगाकर व जीवन को कलात्मक आकार देकर एक निष्प्राण पत्थर को जीवंत बना सकती है।
प्रश्नः 2.
संस्कृति का संबंध मनुष्य की मनोवृत्तियों
से क्यों है?
उत्तर:
संस्कृति का संबंध मनुष्य की मनोवृत्तियों
से इसलिए है क्योंकि मनोवृत्तियाँ शिक्षा, गुण तथा प्रयत्नों से निर्मित होती हैं।
प्रश्नः 3.
व्यक्तित्व की विशेषताएँ किस रूप में
मूल्यवान समझी जाती हैं?
उत्तर:
व्यक्तित्व की विशेषताएँ साध्य एवं साधन
दोनों ही रूपों में मूल्यवान समझी जाती है।
प्रश्नः 4.
संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति क्यों
है?
उत्तर:
संस्कृति समष्टि की अभिव्यक्ति है क्योंकि
यह सामूहिक उल्लास प्रदान करती है।
प्रश्नः 5.
प्रेम को संस्कृति का तेजस तत्व क्यों
कहा गया?
उत्तर:
संस्कृति को प्रेम का तेजस तत्व कहा गया
है क्योंकि प्रेम संस्कृति का केंद्र बिंदु है जिसकी चमक चारों ओर परिलक्षित होती
प्रश्नः 6.
इस अनुच्छेद का उपयुक्त शीर्षक होगा।
उत्तर:
शीर्षक-संस्कृति का महत्त्व।
15. राष्ट्र केवल ज़मीन का टुकड़ा ही
नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत होती है जो हमें अपने पूर्वजों से परंपरा के रूप
में प्राप्त होती है। जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा
अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती
है। ऐसे ही स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्ति का धर्म, जाति,
भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना
और काम करना, उसकी स्वतंत्रता तथा विकास के लिए काम करने की भावना राष्ट्रीयता कहलाती
है।
जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म,
जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। राष्ट्रीयता
की अनिवार्य शर्त है-देश को प्राथमिकता, भले ही हमें ‘स्व’ को मिटाना पड़े। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचन्द्र बोस
आदि के कार्यों से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट
उठाने पड़े किंतु वे अपने निश्चय में अटल रहे। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने
के लिए पारस्परिक सभी सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ
राष्ट्रीय कही जा सकती हैं।
जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों
ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ उठाने का अवश्य
यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। कहीं भाषा को लेकर संघर्ष
हो रहा है तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है जिसका परिणाम
हमारे सामने है। आदमी अपने अहं में सिमटता जा रहा है। फलस्वरूप राष्ट्रीय बोध का अभाव
परिलक्षित हो रहा है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर:
शीर्षक-राष्ट्र और राष्ट्रीयता।
प्रश्नः 2.
‘स्व’ से क्या तात्पर्य है, उसे मिटाना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
‘स्व’ से तात्पर्य है-अपना। केवल अपने बारे में सोचने वाले व्यक्ति
की दृष्टि संकुचित होती है। वह राष्ट्र का विकास नहीं कर सकता। अत: ‘स्व’ को मिटाना आवश्यक है।
प्रश्नः 3.
आशय स्पष्ट कीजिए-“राष्ट्र केवल ज़मीन
का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी है।”
उत्तर:
इसका अर्थ है कि राष्ट्र केवल ज़मीन का
टुकड़ा नहीं है। वह व्यक्तियों से बसा हुआ क्षेत्र है जहाँ पर संस्कृति है, विचार है।
वहाँ जीवनमूल्य स्थापित हो चुके होते हैं।
प्रश्नः 4.
राष्ट्रीयता से लेखक का क्या आशय है
? गद्यांश में चर्चित दो राष्ट्रभक्तों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्रीयता से लेखक का आशय है कि देश
के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता व विकास के लिए काम करने की भवना होना। लेखक
ने महात्मा गांधी व सुभाषचन्द्र बोस का नाम लिया है।
प्रश्नः 5.
राष्ट्रीय बोध को अभाव किन-किन रूपों
में दिखाई देता है?
उत्तर:
आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल
रहे हैं, कहीं भाषा के नाम पर तो कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर। इसके कारण व्यक्ति
अपने अहं में सिमटता जा रहा है। अतः राष्ट्रीय बोध का अभाव दिखाई दे रहा है।’
प्रश्नः 6.
राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का क्या
स्थान है ? उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:
राष्ट्र के उत्थान में व्यक्ति का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। जब व्यक्ति अपने अहं को त्याग कर देश के विकास के लिए कार्य करता है तो देश
की प्रगति होती है। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचन्द्र बोस आदि के कार्यों से देश आज़ाद
हुआ।
16. कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ
देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर
दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मनःस्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों
को उजागर करना मीडिया का दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज़ बनाकर 24 x 7 चैनलों में बार-बार
प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या (TRP) बढ़ती हो, आम आदमी इससे अधिक शंकालु हो जाता
है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं। आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व
है। ऐसे अधिकारी हैं, जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता
भी हैं, जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं।
वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं।
उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टीफ़िकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि
वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों
से समाज बहुत-कुछ सीखता है। आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम,
अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने
जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों
नहीं बन सकते। और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं! यदि यह सच है कि नागरिकों
के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक
और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त
शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-मीडिया का चरित्र निर्माण में
योगदान।
प्रश्नः 2.
लेखक ने क्यों कहा है कि कुछ लोगों को
अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है ?
उत्तर:
लेखक कहता है कि कुछ लोगों को अपने चारों
ओर बुराइयाँ देखने की आदत है। ऐसा उनकी नकारात्मक विचारधारा के कारण होता है। उन्हें
हर जगह बुराई दिखाई देती है।
प्रश्नः 3.
लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया
की क्या भूमिका है?
उत्तर:
मीडिया लोगों की सोच को बनाने-बदलने में
विशेष भूमिका अदा करती है। वे अच्छाई को बार-बार बताकर आम आदमी की मन:स्थिति को बदल
देते हैं।
प्रश्नः 4.
अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल
क्या करते हैं ? उसका आम नागारिक पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल
बुराइयों को सनसनीखेज बनाकर उसे लगातार प्रसारित करते हैं। इससे लोगों के मन में संदेह
उत्पन्न हो जाता है।
प्रश्नः 5.
आज दुनिया में भारतीय किन गुणों के लिए
जाने जाते हैं ?
उत्तर:
दुनिया में भारतीय अपने मेहनत, लगन व
पराक्रम के लिए प्रसिद्ध हैं।
प्रश्नः 6.
किसी संपन्न देश के राष्ट्रपति का अपने
नागारिकों से भारतीयों-जैसा बनने के लिए कहना क्या सिद्ध करता है?
उत्तर:
किसी विकसित देश के राष्ट्रपति द्वारा
अपने नागरिकों को भारतीयों जैसे बनने की प्रेरणा देना यह सिद्ध करता है कि भारतीय कर्तव्यनिष्ठ
हैं।
17. मृत्युंजय और संघमित्र की मित्रता
पाटलिपुत्र के जन-जन की जानी बात थी। मृत्युंजय जन-जन द्वारा ‘धन्वंतरि’ की उपाधि से विभूषित वैद्य थे और संघमित्र समस्त उपाधियों
से विमुक्त ‘भिक्षु’।
मृत्युंजय चरक और सुश्रुत को समर्पित थे, तो संघमित्र बुद्ध के संघ और धर्म को। प्रथम
का जीवन की संपन्नता और दीर्घायुष्य में विश्वास था तो द्वितीय का जीवन के निराकरण
और निर्वाण में। दोनों ही दो विपरीत तटों के समान थे, फिर भी उनके मध्य बहने वाली स्नेह-सरिता
उन्हें अभिन्न बनाए रखती थी। यह आश्चर्य है, जीवन के उपासक वैद्यराज को उस निर्वाण
के लोभी के बिना चैन ही नहीं था, पर यह परम आश्चर्य था कि समस्त रोगों को मलों की तरह
त्यागने में विश्वास रखने वाला भिक्षु भी वैद्यराज के मोह में फँस अपने निर्वाण को
कठिन से कठिनतर बना रहा था।
वैद्यराज अपनी वार्ता में संघमित्र से
कहते–निर्वाण
(मोक्ष) का अर्थ है-आत्मा की मृत्यु पर विजय। संघमित्र हँसकर कहते-देह द्वारा मृत्यु
पर विजय मोक्ष नहीं है। देह तो अपने आप में व्याधि है। तुम देह की व्याधियों को दूर
करके कष्टों से छुटकारा नहीं दिलाते, बल्कि कष्टों के लिए अधिक सुयोग जुटाते हो। देह
व्याधि से मुक्ति तो भगवान की शरण में है। वैदयराज ने कहा-मैं तो देह को भगवान के समीप
जीते ही बने रहने का माध्यम मानता हूँ। पर दृष्टियों का यह विरोध उनकी मित्रता के मार्ग
में कभी बाधक नहीं हुआ। दोनों अपने कोमल हास और मोहक स्वर से अपने-अपने विचारों को
प्रस्तुत करते रहते।
प्रश्नः 1.
मृत्युंजय कौन थे? उनकी विचारधारा क्या
थी?
उत्तर:
मृत्युंजय पाटलिपुत्र में धन्वंतरि की
उपाधि से विभूषित वैद्य थे। उनकी विचारधारा जीवन की संपन्नता व दीर्घायुता से संबंधित
थी।
प्रश्नः 2.
जीवन के प्रति संघमित्र की दृष्टि को
समझाइए।
उत्तर:
संघमित्र बुद्ध के संघ व धर्म को समर्पित
थे। वे जीवन के निराकरण व निर्णय में विश्वास रखते थे।
प्रश्नः 3.
लक्ष्य-भिन्नता होते हुए भी दोनों की
गहन निकटता का क्या कारण था?
उत्तर:
लक्ष्य भिन्नता होते हुए भी दोनों में
गहन निकटता थी क्योंकि दोनों मनुष्य मात्र के कल्याण की उच्च व पवित्र भावना से परिपूर्ण
थे।
प्रश्नः 4.
दोनों को दो विपरीत तट क्यों कहा है?
उत्तर:
दोनों के सिद्धांत अलग-अलग थे। मृत्युंजय
जीवन को निरोग बनाकर आनंदपूर्वक जीने व दीर्घायु रहकर उपभोग का आनंद उठाने के समर्थक
थे जबकि संघमित्र सादे जीवन एवं निर्वाण प्राप्ति के समर्थक थे, अत: दोनों को विपरीत
तट कहा गया।
प्रश्नः 5.
देह के विषय में संघमित्र ने किस बात
पर बल दिया है?
उत्तर:
देह के विषय में संघमित्र ने कहा कि देहरूपी
व्याधि से मुक्ति पाने के लिए ईश्वर की शरण में जाना ही होगा।
प्रश्नः 6.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक सुझाइए।
उत्तर:
शीर्षक-मित्रता का सूत्र है स्नेह ।
18. जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण
के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसको विज्ञापन कहते हैं। यह सूचना नौकरियों
से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी
औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक
मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी
विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता
पाकर भी भंडाफोड़ होने पर बहुत दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों कि यह सोच ग़लत
है।
आज के युग में मानव का प्रचार-प्रसार
का दायरा व्यापक हो चुका है। अतः विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है। किसी अच्छी
वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत
असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो हमारी ज़रूरत की वस्तुएँ प्रस्तुत
करता है, उनकी माँग बढ़ाता है और अंततः हम उन्हें जुटाने चल पड़ते हैं। यदि कोई व्यक्ति
या कंपनी किसी वस्तु का निर्माण करती है, उसे उत्पादक कहा जाता है। उन वस्तुओं और सेवाओं
को खरीदने वाला उपभोक्ता कहलाता है। इन दोनों को जोड़ने का कार्य विज्ञापन करता है।
वह उत्पादक को उपभोक्ता के संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित
करने का प्रयत्न करता है।
पुराने ज़माने में किसी वस्तु की अच्छाई
का विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था। काबुल का मेवा, कश्मीर की ज़री का काम, दक्षिण
भारत के मसाले आदि वस्तुओं की प्रसिद्धि मौखिक रूप से होती थी। उस समय आवश्यकता भी
कम होती थी तथा लोग किसी वस्तु के अभाव की तीव्रता का अनुभव नहीं करते थे। आज समय तेज़ी
का है। संचार-क्रांति ने जिंदगी को गति दे दी है। मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही
हैं। इसलिए विज्ञापन मानव-जीवन की अनिवार्यता बन गया है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-विज्ञापन का महत्त्व।
प्रश्नः 2.
विज्ञापन किसे कहते हैं ? वह मानव जीवन
का अनिवार्य अंग क्यों माना जाता है ?
उत्तर:
समाचार पत्रों में सर्वसाधारण के लिए
प्रकाशित सूचना विज्ञापन कहलाती है। विज्ञापन के जरिए लोगों की आवश्यकताएँ पूरी होती
हैं तथा मानव का प्रचार-प्रसार का दायरा व्यापक हो चुका है। इसलिए वह मानव जीवन का
अनिवार्य अंग माना जाता है।
प्रश्नः 3.
उत्पादक किसे कहते हैं ? उत्पादक-उपभोक्ता
संबंधों को विज्ञापन कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर:
वस्तु का निर्माण करने वाला व्यक्ति या
कंपनी को उत्पादक कहा जाता है। विज्ञापन उत्पादक व उपभोक्ता को संपर्क में लाकर माँग
व पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है।
प्रश्नः 4.
किसी विज्ञापन का उद्देश्य क्या होता
है? जीवन में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
विज्ञापन का उद्देश्य वस्तुओं को प्रस्तुत
करके माँग बढ़ाना है। इसके कारण ही हम खरीददारी करते हैं।
प्रश्नः 5.
पुराने समय में विज्ञापन का तरीका क्या
था? वर्तमान तकनीकी युग ने इसे किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर:
पुराने ज़माने में विज्ञापन का तरीका
मौखिक था। उस समय आवश्यकता कम होती थी तथा वस्तु के अभाव की तीव्रता भी कम थी। आज तेज़
संचार का युग है। इसने मानव की ज़रूरत बढ़ा दी है।
प्रश्नः 6.
विज्ञापन के आलोचकों के विज्ञापन के संदर्भ
में क्या विचार हैं?
उत्तर:
विज्ञापन के आलोचक इसे निरर्थक मानते
हैं। उनका कहना है कि अच्छी चीज़ स्वयं ही लोकप्रिय हो जाती हैं जबकि खराब वस्तुएँ
विज्ञापन का सहारा पाकर भी लंबे समय नहीं चलती।
19 भविष्य की दुनिया पर ज्ञान और ज्ञानवानों
का अधिकार होगा। इसलिए शैक्षिक नीतियों को उन मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तनों का अभिन्न
अंग होना चाहिए जिनके बिना नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सपना मात्र रह जाएगी। इसका लक्ष्य
उन भाग्यवादी विचारों का सफाया होना चाहिए जो यह प्रचारित करते हैं कि निर्धनता प्रकृति
की देन है और यह कि अभावग्रस्त लोगों को उसी तरह निर्धनता को सहना चाहिए जैसे कि प्राकृतिक
आपदाओं को। उन लोगों की बुद्धि ठीक करनी चाहिए जो निर्धनता की खोखली आध्यात्मिकता में
आत्मतोष ढूँढ़ते हैं और उनको भी जो समृद्धि को उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन का अर्थ
और उद्देश्य देखते हैं।
नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण
में शिक्षा को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। जब तक इन भविष्यवादी प्रतिमानों की इस
भयंकर सीमा को दूर नहीं किया जाता, दुनिया दो नहीं, तीन भागों में बँटकर रह जाएगी जिसकी
ओर यूनेस्को के एक अध्ययन ने ध्यान दिलाया है : “सबसे नीचे प्राथमिक (बेसिक) शिक्षा
और वंशगत कार्य तथा निर्वाहमूलक श्रमवाले देश होंगे; बीच में व्यावसायिक शिक्षा सहित
माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक के, कुछ साधारण छंटाई-सफ़ाई (प्रोसेसिंग) करने वाले देश
होंगे तथा सबसे ऊपर वे देश होंगे जहाँ हर व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय का स्नातक होगा
और विशालकाय वैज्ञानिक प्रौदयोगिकी आधारवाले अत्यंत शोधमूलक उद्योगों में कार्य कर
रहा होगा।
“आधुनिक
युग की त्रासदी यह है कि तीसरी दुनिया इस समय भी तीसरी और चौथी दुनियाओं में बँटती
चली जा रही है और विकासशील देश अल्पविकसित और अल्पतमविकसित देशों में बँट रहे हैं।
असमानता को फैलाने की इस प्रक्रिया में दुर्भाग्य से शिक्षाप्रणाली महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभा रही है।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त
शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-शिक्षा प्रणाली और असमानता।
प्रश्नः 2.
नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कब सपना मात्र
रह जाएगी?
उत्तर:
नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था तब सपना मात्र
रह जाएगी जब तक शैक्षिक नीतियों को मूलभूत संरचनात्मक परिवर्तन का अभिन्न अंग नहीं
बना दिया जाएगा।
प्रश्नः 3.
शिक्षा के क्षेत्र में भाग्यवादी विचार
क्या प्रचारित करते हैं?
उत्तर:
शिक्षा के क्षेत्र में भाग्यवादी यह प्रचार
करते हैं कि निर्धनता प्रकृति की देन है। गरीब लोगों को निर्धनता उसी तरह सहन करनी
चाहिए जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं को सहन करते हैं।
प्रश्नः 4.
लेखक किन लोगों की बुद्धि ठीक करने की
बात करता है? क्यों?
उत्तर:
लेखक उन लोगों की बुद्धि ठीक करने की
बात करता है जो निर्धनता की खोखली आध्यात्मिकता में आत्मतोष ढूँढ़ते हैं और उनको भी
जो समृद्धि को उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन का अर्थ और उद्देश्य देखते हैं।
प्रश्नः 5.
भविष्यवादी प्रतिमानों को ठीक न करने
का मुख्य परिणाम क्या होगा?
उत्तर:
भविष्यवादी प्रतिमानों को ठीक न करने
का मुख्य परिणाम यह होगा कि दुनिया दो नहीं तीन भागों में बँटकर रह जाएगी।
प्रश्नः 6.
आधुनिक युग की त्रासदी किसे कहा गया है?
क्यों?
उत्तर:
आधुनिक युग की त्रासदी यह है कि तीसरी
दुनिया भी तीसरी व चौथी दुनिया में बँट रही है क्योंकि शिक्षा प्रणाली को वे अपना नहीं
रहे हैं।
20 साहित्य का जीवन के साथ गहरा संबंध
है। साहित्यकार अपनी पैनी दृष्टि से देखता है और संवेदनशील मन से उसको अभिव्यक्त करता
है। चारों ओर देखे गए सत्य और भोगे हुए यथार्थ को कभी कल्पना के रंग में रंगकर, तो
कभी ज्यों-कात्यों पाठक के सामने प्रस्तुत कर देता है। साहित्यकार में सौंदर्य को देखने
और परखने की अद्भुत शक्ति होती है। मनोरम दृश्यों के सौंदर्य और मुग्ध कर देने वाले
स्वरों की मधुरता से वह अकेले ही आनंदमग्न नहीं होना चाहता। वह दूसरों को भी आनंदमग्न
करने के लिए सदा आतुर रहता है। साहित्यकार जब समाज को अपने मन की बात सुनाता है, तो
साहित्यकार और समाज का संबंध स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
समाज की रूढ़ियों और विद्रूपताओं को उजागर
कर वह जनमानस को जाग्रत करता है। उन्हें बताता है कि जो कुछ पुराना है, वह सोना ही
हो-यह आवश्यक नहीं। हमें जकड़ने वाली, पीछे धकेलने वाली रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा।
इस प्रकार साहित्यकार समाज का पथ-प्रदर्शक भी है और पथ-निर्माता भी। वह समाज को परिवर्तन
और क्रांति के लिए भी तैयार करता है। यह सत्य है कि अनेक साहित्यिक रचनाएँ क्रांति
की आधारशिला रखने में समर्थ हुई हैं। इसलिए साहित्य को केवल मनोरंजन की वस्तु मानना
अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर सूर्य को नकारना है।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त
शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
शीर्षक-साहित्यकार और समाज।
प्रश्नः 2.
साहित्यकार की दृष्टि और मन के लिए प्रयुक्त
विशेषणों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साहित्यकार की दृष्टि के लिए ‘पैनी’ व मन के लिए ‘संवेदनशील’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। साहित्यकार समाज की हर
घटना का सूक्ष्मता से विश्लेषण करके उसे मानवीय भावनाओं के अनुरूप अभिव्यक्त करता है।
प्रश्नः 3.
साहित्यकार सत्य को पाठक के समक्ष कैसे
रहता है?
उत्तर:
साहित्यकार अपने आसपास के सत्य को कभी
यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करता है तो कभी कल्पना के रंग में भरकर प्रस्तुत करता
प्रश्नः 4.
साहित्यकार को समाज का पथ-निर्माता और
पथ-प्रदर्शक क्यों कहा गया है?
उत्तर:
साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक व पथ
निर्माता है क्योंकि वह समाज की कमियों को उजागर करता है। वह पुरानी रूढ़ियों को गलत
बताता है। साथ ही वह नए विचार व सिद्धांत भी समाज के सामने रखता है।
प्रश्नः 5.
आशय स्पष्ट कीजिए ‘अपनी आँख पर पट्टी
बाँधकर सूर्य को नकारना।’
उत्तर:
इसका अर्थ है-जानबूझकर सत्य को नकारना।
लेखक कहता है कि आँख पर पट्टी बाँधने से सूर्य के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता।
इसी तरह साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है। यह समाज को राह दिखलाता है।
प्रश्नः 6.
साहित्यकार समाज को परिवर्तन और क्रांति
के लिए कैसे तैयार करता है?
उत्तर:
साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से
समाज के सामने रूढ़ियों का नकारापन साबित करता है। वह जनमानस को संघर्ष के लिए तैयार
करता है तथा नए विचार अपनाने की सलाह देता है।