आधुनिक काल में भले
ही इंटरनेट का जोर हो, ई-बुक्स का प्रचार-प्रसार हो रहा है। इन सबके बावजूद, दुनियाभर
में पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। पुस्तकें ज्ञान का भंडार हैं। मुद्रित पुस्तक को
पढ़ने के लिए समय की ज़रूरत होती है। पुस्तक पठन के लिए उम्र व स्थान का बंधन नहीं
होता। किसी पुस्तक की समीक्षा हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है –
पुस्तक का पूर्व अध्ययन
करना चाहिए।
पुस्तक के मुख्य-मुख्य
बिंदुओं को नोट करना चाहिए।
पुस्तक के शिल्प पक्ष
का भी ज्ञान होना चाहिए।
पुस्तक की अच्छाइयों
के वर्णन के साथ-साथ कमियों को भी उजागर करना चाहिए।
समीक्षा करते समय पूर्वाग्रह
से दूर रहना चाहिए।
उदाहरण (हल सहित)
जिंदगी की साँझ से संवरती
कविताएँ
-डॉ० रूप देवगुण
कविता-संग्रह : साँझ
का स्वर
कवयित्री : डॉ० सुधा
जैन
प्रकाशन : अक्षरधाम
प्रकाशन, कैथल
मूल्य: 150/- वर्ष
: 2012
डॉ० सुधा जैन हरियाणा
की प्रतिष्ठित कवयित्री, कहानी लेखिका व लघुकथाकार हैं। ‘साँझ का स्वर’
इनका छठा काव्य-संग्रह है। इस संग्रह में इनकी कुछ कविताएँ जीवन की साँझ को मुखरित
करती हैं। ‘साँझ घिर आई’ में वृद्धावस्था में व्यतीत हो रहे
जीवन का लेखा-जोख है। दिनभर का लेखा-जोखा/क्या खोया क्या पाया/ ‘फिर मिलेंगे’
में बचपन, जवानी, बुढ़ापा, मृत्यु व पुनर्जन्म की बात की गई है। ‘हँसते-हँसते’
में फिर बुढ़ापे की जिंदगी को दोहराया गया है-बिस्तर में सिमट गई जिंदगी/किताबों में
खो गई जिंदगी/ ‘भीतर की आंखें’ में बुजुर्गों की दयनीय दशा का वर्णन
है। वे बाहर से अशक्त दिखाई देते हैं और भीतर की आंखों से ही संसार का अवलोकन कर सकते
हैं-भीतर की खुल गई आँखें/मैं भी देख रही अब/अपने चारों ओर बिखरा संसार/ढलती उम्र में
विस्मृतियों का सहारा लेना पड़ता है-पुरानी फाइलों में दबे पत्र पढ़े। कितनी घटनाएँ,
कितने लोग, कितने नाम, विस्मृति के अंधेरे में खोये टिमटिमा उठे (विस्मृति का कोहरा)।
डॉ० सुधा जैन ने इस
संग्रह की कई कविताओं में नारी के स्वर को तरजीह दी है। ‘घर-बाहर के बीच पिसती औरत’
कविता में नौकरी करने वाली औरतों की तकलीफदेह ज़िन्दगी का लेखा-जोखा है-सुबह पाँच बजे
उठती/घर संवारती/चाय, नाश्ता, खाना बनाती/बच्चे स्कूल भेजतीं/पति को ऑफिस भेज/भागती
दौड़ती/अपने दफ़्तर पहुँचती/बॉस की डांट सुनतीं/रोज ही देर हो जाती। औरत आज भी सुरक्षित
नहीं है-आज भी सुरक्षित नहीं/औरत/इतनी शिक्षा/इतने ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर/पहुँचने के बाद
(औरत)। माँ की आँखें दफ़्तर से लौटने वाली जवान बेटी को खोज रही हैं- खोज रही आँखें/भीड़
में अपनी बेटी/लौटी नहीं/दफ्तर से।
घूमते सब ओर/सड़कों
में, पार्कों में बसों में/ट्रेनों में (नहीं लौटेंगे कदम पीछे) वस्तुतः औरत संपन्न
पिंजरे की मैना जैसी है-सबका मनोरंजन करती/मैं पिंजरे की मैना/उड़ना भूल गई/(पिंजरे
की मैना) धन संपन्न नारियाँ अधिकतर रोगग्रस्त हैं, इसका वर्णन कवयित्री ने ‘धन संपन्न
नारियाँ कविता में किया है। वास्तव में इनके पास सब कुछ है किंतु सुख नाम की कोई चीज़
नहीं है। गांव में रहने वाली औरत का और भी बुरा हाल है। ‘गांव की छोटी’
कविता में डॉ० सुधा जैन ने लिखा है-चाहा उसने यदि/अपने मन की मीत/ तो लांघ गई सीमा/गंडासे
से काट दी जाति। ‘इतनी उपेक्षा क्यों’ कविता में भ्रूण समस्या को लिया गया
है।
डॉ० सुधा जैन ने आज
के मशीनी युग का वर्णन इस प्रकार किया है-मशीनी युग में। जीते-जीते/मशीनवत हो गए हम/(मशीनों
का युग) विदेशी माल की भर्त्सना करते हुए कवयित्री ने लिखा है-बाजार भर गये/विदेशी
माल से/ढूँढ़ते लोगी/चीनी जापानी…. बनी चीजें/(कहां खो गया अपना देश)
डॉ० सुधा जैन ने ‘जीने की राह’ कविता में जीवन की एकरसता को तोड़ने
के साधन बताए हैं- मेले पिकनिक/सेर सपाटे/यात्राएँ तीज/त्योहार/जन्मदिन/शादियों के
आयोजन/भिन्न-भिन्न समारोह/तोड़ देते एक रसता।
‘त्राहि-त्राहि’ कविता में महँगाई की समस्या को लिया
गया है। किसान की दुर्दशा का भी कवयित्री ने वर्णन किया है-कहीं बाढ़/बह रहे मवेशी,
मनुष्य/गाँव के गाँव/कहीं रो रहा किसान (बाढ़) प्रकृति से हम दूर होते जा रहे हैं,
इसका वर्णन ‘प्रकृति से टूट रहा नाता’ कविता में इस प्रकार किया है-रात को
सोते थे/खुली छतर पर/चाँदनी में नहाते…. प्रभात की मंद बयार/कितना मोहक होता
था। प्रकृति का वह पहर। ‘चदरिया’ में जीवन-मृत्यु की दार्शनिक बाते
हैं फिर भी क्यों/जीने की चाह/न जन्म अपना/न मृत्यु अपनी।
डॉ० सुधा जैन की इन
कविताओं में सरल भाषा है, तुलनात्मक व संस्मरणात्मक शैलियाँ हैं। इन्होंने नारी जाति
की समस्याओं को विशेष रूप से अपनी कविताओं में लिया है। इनकी कविताओं की सबसे बड़ी
विशेषता जीवन की सांध्य को लेकर लिखी रचनाएँ हैं। डॉ० सुधा जैन को अच्छी व स्तरीय कविताओं
के लिए साधुवाद।
विसंगति, विडंबना और
प्रेम
-डॉ० वेदप्रकाश अमिताभ
कहानी-संग्रह : प्रेम
संबंधों की कहानियाँ
लेखक : संतोष श्रीवास्तव
प्रकाशन : नमन प्रकाशन,
4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली
मूल्यः 250/- प्रथम
संस्करण : 2012
संतोष श्रीवास्तव की
प्रेम संबंधों पर केंद्रित इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि प्रायः कोई न कोई हादसा
कोमल रागात्मक संबंधों को आहत कर गया है। यह हादसा प्रायः किसी स्वजन की मृत्यु के
रूप में है। हालांकि आकस्मिक मृत्यु के संदर्भ अलग-अलग हैं। अजुध्या की लपटें में रुस्तम
जी सांप्रदायिक नफ़रत के शिकार हुए हैं, ‘अपना-अपना नर्क’
में शिशिर और अनूप सड़क दुर्घटना में क्षत-विक्षत हुए हैं। आतंकवाद के दानवी पंजे
(‘शहीद खुर्शीद बी’)हों या विमान दुर्घटना (‘दरम्यान’)
या रंगभेद हो या पर्वतारोहण (‘ब्लैक होल’) के दौरान घटित अघटित हो, एक व्यक्ति
की मृत्यु उनके आत्मीयों के लिए अभिशाप बन गई है। हालांकि मरे हुओं के साथ दूसरे लोग
मर नहीं जाते, जीवित रहते हैं। इस जीवित रहने में जो तकलीफ है, स्मृति के दंश हैं,
पश्चाताप है, कुछ कठोर निर्णय हैं, उनका बहुत स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक और मार्मिक अंकन
इन कहानियों में हुआ है।
यह ध्यानाकर्षक है कि
कई कहानियों में विपरीत और त्रासद परिस्थितियों में भी रागात्मक लगाव जीवित रहता है।
मृत्यु मनुष्यों की हुई है, बहुत से सपने असमय काल कवलित हुए हैं, पारिवारिक संबंधों
में दरारें आयी हैं, लेकिन समर्पण-भाव और अनन्य अनुराग शिथिल या कम नहीं हुआ है। इस
दृष्टि से ‘शहतूत पक गए हैं’, ‘आइरिश के निकट’,
‘फरिश्ता’, ‘ब्लैक होल’, एक मुट्ठी आकाश’
आदि कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। ‘शहतूत पक गए हैं’ की दिदिया और जगदीश जैसे एक दूजे के
लिए बने थे, लेकिन परिवारी जन उनका ‘साझा सपना’ साकार नहीं होने देते और दिदिया खुद
को ‘अगरबत्ती की तरह’ आहिस्ता-आहिस्ता जलने को तैयार कर
लेती हैं।
‘आइरिश के निकट’ और ‘अजुध्या की लपटें’
में ‘सम्प्रदाय’ दो दिलों के मिलने में आडे आया है।
‘फरिश्ता’ में रंगभेद श्वेत मेलोडी और अश्वेत एंजेली के बीच खाई
बना है। ‘एक मुट्ठी आकाश’ में डिवॉसी कुमकुम से मनीष का लगाव
भारी पड़ता है, परिवार, दोस्त, माँ सब मुँह फेर लेते हैं लेकिन इन सभी कहानियों में
प्रेम अविचलित है, उसका संबंध तन तक सीमित नहीं है। ‘अपना अपना नर्क’
में मीनाक्षी और शिशिर का विवाह होने से पहले शिशिर एक दुर्घटना में जान गँवा देता
है लेकिन मीनाक्षी उसकी स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पाती। ‘ब्लैक होल’
की उर्मि भी प्रशांत की मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाती है।
लेकिन ये कहानियाँ भावुकता
में लिपटी कोरी प्रेम कहानियाँ नहीं हैं। संतोष श्रीवास्तव ने इन्हें परिवेश की प्रामाणिकता
से समृद्ध कर बृहत्तर यथार्थ का संवाहक बना दिया है। प्रायः कहानियाँ नारी चरित्रों
पर केंद्रित हैं, अतः स्त्री संबंध अवमूल्य और कुरूपताएँ विशेष मुखर हैं।
अपने अभिप्राय को व्यक्त
करने में सर्वथा सक्षम भाषा संतोष श्रीवास्तव के पास है। अतः वे स्थितियों-मनः स्थितियों
को सफलतापूर्वक उकेर सकी हैं। ‘तुम्हारा हिस्सा कनकलता’
में रवींद्र दा के निधन के बाद कात्यायनी की मनःस्थिति के चित्रण के लिए कहानीकार ने
‘चक्रवात’ और ‘कटे पेड़’ का सहारा लिया है और ‘ब्लैक होल’
में ब्लैक होल का प्रतीकार्थ व्यापक है। एक कहानी में ‘कलम’
को वह जादू की छड़ी कहा गया है, जो सिंड्रेला को राजकुमारी बना सकती है। कलम की कुछ
नया और महत्त्वपूर्ण रचने की ताकत इन कहानियों में भी दबी-ढंकी नहीं है।
गलीवाला आम का वृक्ष
कहानी-संग्रह : गलीवाला
आम का वृक्ष
लेखक : कुँवर किशोर
टंडन
प्रकाशन : पहले-पहल
प्रकाशन, भोपाल
मूल्य: 115/- पृष्ठ
: 104
कुँवर किशोर टंडन का
नवीनतम कहानी-संग्रह ‘गलीवाला आम का वृक्ष’ है। इससे पहले उनके दो काव्य-संग्रह
आ चुके हैं। इस कहानी-संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ शामिल हैं। सभी कहानियाँ मानव-जीवन
के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी हुई हैं। इसके विभिन्न पात्र भी सभी समुदायों तथा वर्गों
से लिए गए हैं।
आमतौर से यह धारणा बनी
रहती है कि सरकारी उच्च अधिकारी सदा ऐश करते हैं और उन्हें काम-धाम नहीं करना पड़ता,
वे लोग सिर्फ सरकारी तथा गैर-सरकारी सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हैं, मगर टंडन की कहानी
‘आशंकाओं के घेरे’ पढ़ने के बाद यह धारणा काफ़ी बदल जाती
है, क्योंकि एक छोटे से शक की वजह से एक सरकारी अधिकारी किस मुश्किल में पड़ सकता है,
इसका अंदाजा एक साधारण व्यक्ति को नहीं हो सकता।
दोस्ती-यारी को जीवन
में एक उच्च स्थान दिया जाता है, मगर आप जिसे दोस्ती समझ रहे हो, आपका मित्र उसका व्यावसायीकरण
कर उसका इवजाना माँगने लगे तो ‘सो आवत यह देश’ के विवेक की भाँति मन यही सोचने लगता
है कि शंकर ने उससे जो कहा, वह झूठ ही रहे। यह कहानी हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था
पर भी काफ़ी गहरी चोट करती है, जिसकी धीमी प्रक्रिया सालों-साल लगा देती है।
‘गलीवाला आम का वृक्ष’ कहानी हमारी उस पारंपरिक सोच की ओर
इंगित करती है, जहाँ पुरुष की बुरी नियत का शिकार होने पर सारा दोष लडकी को ही दिया
जाता है, चाहे वह कितनी मासूम, भोली और कम उम्र की क्यों न हो और सबसे बड़ी बात बेकसूर
होने पर भी समाज की ओर से दंड की भागीदारी उसे ही बनना पड़ता है।
कुछ इसी प्रकार की सच्चाइयाँ
कहानीकार अपनी अन्य कहानियों में भी प्रस्तुत करता है, जिनमें से ‘मशीन और नारी’,
‘धागे से झूलती हुई ज़िन्दगी’, ‘एक टूटी हुई संवेदना’
आदि का जिक्र किया जा सकता है। इन सभी कहानियों की कथावस्तु इस बात का संज्ञान करवाती
हैं कि वस्तुतः सामाजिक परिस्थितियों तथा भोगवादी प्रवृत्तियों के तहत आज की युवा पीढ़ी
में ही नहीं बल्कि अधिकतर व्यक्तियों में संवेदनहीनता बढ़ती जाती है।
कहानियों में तनाव की
स्थिति इस बात का अहसास करवाती है कि आज के युग में सामान्य जन-जीवन भी आसान नहीं।
यथार्थ की कटुता के बीच भी ‘डायरी’ की वह तारीख तथा ‘बेंत वाली काठ की
कुर्सी’ सरीखी भावुक तथा सौहार्दपूर्ण घटनायें भी जीवन को इंसानियत
तथा रिश्तों की गरिमा के दायरे में बाँधती प्रतीत होती हैं। कुल मिलाकर ‘गलीवाला आम
का वृक्ष’ के साथ पाठकों को निकटता का अहसास होता है।
कितने पास कितने दूर
कहानी-संग्रह : कितने
पास कितने दूर ।
लेखक : आनंद प्रकाश
‘आर्टिस्ट’
प्रकाशन : सूर्य भारती
प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 150/- पृष्ठ
: 96
आनंद प्रकाश ‘आर्टिस्ट’
के प्रथम कहानी-संग्रह के रूप में पाठकों/आलोचकों के सामने आया ‘कितने पास कितने दूर’।
नौ कहानियों का समावेश करता यह कहानी-संग्रह अपने मुख्य शीर्षक को ही तकरीबन सभी कहानियों
में प्रतिपादित करता है। कौन कितना पास होकर भी दूर है, और कौन दूर होकर भी पास है,
इसका सही-सही अनुमान लगाना आसान नहीं होता, विशेषकर प्रेमियों के संदर्भ में।
‘कितने पास कितने दूर’ नामक मुख्य शीर्षक वाली कहानी में
दो प्रेमी आपस में प्रेम करने के बावजूद समाज के रीति-रिवाजों तथा नियमों के आड़े आ
जाने के कारण शादी के बंधन में नहीं बँध पाते, मगर भावनाओं तथा संवेगों से एक-दूसरे
से निकटता ही महसूस करते हैं।
‘कौन किसका है’ नामक कहानी में भी दो प्रेमियों के
सामने वर्ग-श्रेणी आ जाती है। जिसे अपना मन का मीत माना जाता है, वही शादी के बाद बदल
जाता है, ऐसे में कॉलेज समय का एक मित्र आकर कृष्णा को उसके दुख से उबारता है।
अध्यापन के क्षेत्र
से जुड़े होने के कारण लेखक की कहानियों के अधिकतर पात्र अध्यापक वर्ग से लिए गये हैं।
लेखक की नज़र में भी अध्यापकों का चरित्र ऊँचा होने के कारण वह इसी पारंपरिक अवधारणा
को ही मान्यता देते हुए कहानियों के मुख्य पात्रों को आदर्श तथा उच्च चरित्र का ही
दर्शाया है, जो अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी को भी समाज के नियमों के अधीन कुर्बान
कर देते हैं। चाहे वे कितने पास कितने दूर का अध्यापक हो या कौन किसका है की कृष्णा
या फिर ‘फूल तुम्हें भेजा है’ का अध्यापक अविनाश।
अन्य कहानियाँ ‘आदर्श,
मुहब्बत का दर्द, खोया हुआ अतीत इत्यादि में भी लेखक आदर्शों तथा उच्च मूल्यों को अपनाने
पर जोर देता है। उसकी सभी कहानियाँ वृत्तांत ढंग से बयान की गयी हैं। लंबे-लंबे संवाद,
जो भाषण या प्रवचन शैली को अपनाते प्रतीत होते हैं। अधिकतर बात पात्रों के माध्यम से
की गयी है। सभी कहानियों में शिक्षक, शिक्षा अधिकारी इत्यादि का ज़िक्र थोड़ा-सा अखरता
भी है। हो सकता है, लेखक का प्रथम प्रयास होने के कारण उससे अनजाने में ऐसा हो गया
हो। उम्मीद करते हैं कि लेखक का आने वाला अगला कहानी-संग्रह कुछ नवीन विषयों तथा पात्रों
सहित पाठकों के सामने आएगा।
मानवीय परिप्रेक्ष्य
का संवेदनात्मक विस्तार : हरियश राय की कहानियाँ
-डॉ० राजकुमार
अंतिम पड़ाव
पुस्तक : अंतिम पड़ाव
(कहानी संग्रह)
लेखक : हरियश राय
प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन
4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य : एक सौ चालीस
रुपये
हरियश राय के नवीनतम
कहानी-संग्रह ‘अंतिम पड़ाव’ की अधिसंख्य कहानियों के केंद्र में
वही सवाल हैं जो आज के समाज की चिंता के केंद्र में मौजूद हैं। भारत में बाज़ारवाद
और धार्मिक संकीर्णतावाद एक तरह से जुड़वा अवधारणाओं की तरह उभरे हैं। धर्म के सहारे
राजनीतिक और आर्थिक सत्ता की सीढ़ियां चढ़ता मध्ययुगीन तत्ववाद और सबकुछ मानवीयता को
विस्थापित करता बाजारवाद। कहानीकार स्थानीय अनुभव को वैश्विक स्तर के परिदृश्य से जोड़कर
अपने समय और समाज के क्रूर सत्य की इन दो तहों को खोलता हुआ आगे बढ़ता है। ‘न धूप न
हवा’, ‘नींद’, ‘ढानी में ठिठुरन’,
‘होमोग्लोबीन’, ‘पानी की तेज़ धार’ जैसी कहानियों में महानगर से लेकर
धुर देहात तक फैली आत्म-निर्वासन की उदासी पाठक की संवेदना को बार-बार झकझोरती है।
समूचे परिवेश में पसरे इस आत्मनिर्वासन के अपने कारण, अपना स्वभाव और अपनी विशेष स्थिति
है जो वर्तमान समाज के ढांचे और उसके अंतर्विरोधों से उत्पन्न हुई हैं।
इस निर्वासन का सामाजिक
और इससे भी अधिक आर्थिक संदर्भ है। घोर आर्थिक विषमता में रहता हुआ आदमी ‘डिप्रेशन’
महसूस करता है। चूँकि उसका अपनी मेहनत से पैदा की गई वस्तु से कोई लगाव नहीं होता,
यंत्रों की तरह संबंधहीनता और जड़ता उसमें समाती जाती है, जो सारे सामाजिक संबंधों
और दायित्वों तक फैल जाती है। यह परायापन पूँजीवादी सभ्यता की देन है, जिसमें सभी ठोस
परिस्थितियाँ और समूचा वातावरण आदमी को बराबर यह महसूस करवाते रहते हैं कि वह एक ऐसे
निर्वैयक्तिक ढांचे-अप्रेटस पर निर्भर है जो उसके बाहर (और भीतर भी) चालू है और बिना
उसकी संचेतना और सहयोग के उसे चलाता है।
‘न धूप न हवा’ का रामानंद, ‘नींद’
के नवीन शर्मा, ‘ढाणी में ठिठुरन’ का मंगला ‘हीमोग्लोबिन’
की विनय सुनेजा, ‘पानी की तेज़ धार’ के श्रीनिवासन इसी आत्मनिर्वासन के
शिकार चरित्र हैं। ‘अंतिम पड़ाव’ में एक मुट्ठी चावल के लिए तेज़ धूप
में मीलों खटती और रंचमात्र मानवीय संवेदना के लिए तरसती सोना घोष और पानूबाला के माध्यम
से हरियश राय ने वृंदावन में घोर अमानवीय परिस्थितियों में जीवन काटती बंगाली विधवाओं
की करुण गाथा को नया मानवीय संदर्भ दिया है।
‘खफा-खफा से’ कहानी में लेखक हिंदुत्ववादी शक्तियों
के उभार के बाद आम मुस्लिम समाज की कठिनाइयों से हमें रू-ब-रू कराता है। नसीम अख्तर
से पूछा गया रफीक हुसैन का यह सवाल हमारे जेहन में बराबर कौंधता है-“क्या आपको नहीं
लगता सर कि हमारा उपहास-सा किया जा रहा है। हमें हाशिए पर जानबूझकर रखा जा रहा है।
हमसे आत्मीयता नहीं जताई जाती। एक अनचाही-सी दूरी हमसे बनाई जाती है। आप ही बताइए सर,
एक असुरक्षा की भावना क्यों है हममे? हम लोग अपनी बदनामी से क्यों इतना डरते हैं ?
हम अपने जीवन के फैसले लेते समय अपने आपको मुस्लिम के रूप में क्यों देखते हैं ? हमारे
लिए शहर के कुछ इलाके वर्जित क्यों हैं? हमें बार-बार क्यों यह अहसास कराया जाता है
कि हम मुसलमान हैं? क्यों हम लोगों से एक दूरी लोग बनाए रखते हैं ? इन ढेर सारी मुश्किलों
को हम कैसे अपनी कोशिशों से दूर कर सकते हैं ?”
महान कथाकार टामस हार्डी
ने कहा था कि, ‘एक अच्छी कहानी थप्पड़-सा मारकर हमारी संवेदना को जगाती है और हमें
नई सामाजिक सच्चाइयों की जानकारी देती है।’ इसी तर्ज पर हरियश राय की ये कहानियाँ
हमारी संवेदना और सामाजिक जागरूकता को ज़रूर विस्तार देती हैं।
दलित साहित्य का संवेदनशील
मूल्यांकन
-डा० राजकुमार
पुस्तक : दलित साहित्य
: एक मूल्यांकन
लेखक : प्रो० चमन लाल
प्रकाशक : राजपाल एंड
सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली-110006
मूल्य : दो सौ पच्चीस
रुपये
‘दलित साहित्य एक मूल्यांकन’
प्रोफेसर चमनलाल के पिछले दो दशकों में प्रकाशित उन महत्त्वपूर्ण लेखों का संकलन है
जो उन्होंने ‘दलित प्रश्न’ के विविध साहित्यिक, सामाजिक और आर्थिक
पक्षों को लेकर लिखे थे। यहाँ संकलित लेखों में से अनेक ऐसे हैं जो विभिन्न विश्वविद्यालयों
और उच्चतर शोध संस्थानों में आयोजित संगोष्ठियों में लेखक द्वारा प्रस्तुत शोध-निबंधों
के रूप में तैयार किये गये थे लेकिन एक सुखद विस्मय का अनुभव इन शोध और आलोचनात्मक
लेखों के बीच से गुज़र कर होता है।
वह इस वजह से कि इन
लेखों में आयंत एक ऐसी संवेदनशील मानवीय प्रतिश्रुति उपस्थित मिलती है जो हमें एक अपार
दुख संवलित मानवता के अविभाज्य और अहम हिस्से के रूप में दलित वर्ग के बारे में बेरुखी
से भरी तटस्थ अकादमिक नीरसता में ले जाकर अकेला नहीं छोड़ देती बल्कि हमें गहरे वैचारिक
सोच से भरते हुए उनकी नियति से एकात्म होकर संगठित कार्रवाई के लिए संकल्पबद्ध करती
है। लेखक का यह कहना सही है कि ‘भारतीय समाज में दलित थे नहीं, वे एक ऐतिहासिक-सामाजिक
प्रक्रिया में भारत के मूल निवासियों से ही अप्राकृतिक रूप से क्रूर सत्ता व दमन का
प्रयोग कर ‘दलित’ बनाए गए हैं।
‘दलित साहित्य’ पर विचार करते हुए लेखक ने इस राय
पर अपनी ताइत्तिफाकी जाहिर की है कि ‘दलित लेखन’ वही है जो दलितों द्वारा ‘दलितों के
लिए’ लिखा जाता है। उसका कहना है कि ‘दलित समुदाय बृहत्तर समाज
का अंग है। दलितों की मानवीय अस्मिता के प्रति बृहत्तर समाज की संवेदना जाग्रत होनी
ही चाहिए, जिसमें दलित साहित्य की भूमिका हो सकती है।
….अब रहा ‘दलितों के जीवन पर’
लिखने का अधिकार। बृहत्तर समाज एक ऐसी इकाई है जिसमें विभिन्न सामाजिक समुदाय एक-दूसरे
से आदान-प्रदान में रहते हैं।…इस अर्थ में दलित लेखक की दलित समुदाय
से निकटता या उस समुदाय का अंग होने की स्थिति, अपने समुदाय को अधिक संवेदना, सहानुभूति
या अधिक वस्तुगतता से चित्रित करने में सहायक हो सकती है। लेकिन समाज के विभिन्न समुदायों
को एक-दूसरे से काटकर नहीं देखा जा सकता। इस अर्थ में हर लेखक अपनी रचना में बहुत सारे
समुदायों को एक ही समय चित्रित करेगा और इस भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक
लेखक की अंतर्दृष्टि, उसकी विकसित मानवीय संवेदना उसे उसी समुदाय के साथ जोड़ेगी जो
मानवीय स्तर पर सर्वाधिक उत्पीड़ित (अनेक अर्थों में–वर्ग,
जाति या लिंग के स्तर पर) हैं।”
‘दलित साहित्य और मार्क्सवाद’
शीर्ष से लिखे अपने लेख में प्रो० चमनलाल ने सही कहा है कि ‘भारतीय समाज व भारतीय साहित्य
के संदर्भ में प्रगतिशील साहित्य व दलित साहित्य-दोनों ही प्रवृत्तियाँ समाज की ऐतिहासिक
अनिवार्यता से पैदा हुई हैं, दोनों का अन्त:संबंध एक-दूसरे का विरोधी न होकर पूरक होने
का है व दोनों ही प्रवृत्तियाँ विश्व की महान परिवर्तनकामी मानवतावादी क्रांतिकारी
साहित्य-परम्परा का गौरवशाली अंग है, जो भारतीय समाज के रूढ़िवादी संस्कारों को बदलने
व नई मूल्य-चेतना विकसित करने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा रही है।’
यह पुस्तक विभिन्न भारतीय
भाषाओं में लिखे गए और लिखे जा रहे दलित साहित्य के अब तक अलक्षित पहलुओं से हमें रू-ब-रू
कराते हुए हमारी जानकारी को तो बढ़ाती ही है साथ ही मौजूदा समाज में तेजी से स्वीकार्यता
पाते जा रहे ‘दलित विमर्श’ में भी बहुत कुछ सकारात्मक जोड़ती
है। ‘
….अहमक फफूंदवी : एक बढ़िया किताब।’
-अजय
‘जंगे आज़ादी के कलमी सिपाही : अहमक फफूंदवी’
स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी शेरो-शायरी से हिंदुस्तान की अवाम के जमीर को झिझोंड़कर
जगाने वाले इंकलाबी दानिशवर जनाब ‘मुस्तफा खाँ ‘मद्दाह”
उर्फ ‘अहमक फफूंदवी’ को एक नौजवान कलमकार का बाअदब सलाम
भी है और कृतज्ञ राष्ट्रवादी मानसिकता की पावन श्रद्धांजलि भी। इस पुस्तक के लेखक श्री
गोविन्द द्विवेदी मूलतः कवि हैं। गीतकार के रूप में उनकी कीर्ति अनेक सोपान पारकर उच्च
पटल पर स्थापित हो चुकी है।
प्रकाशन के क्षेत्र
में यह पुस्तक साहित्य जगत को उनकी दूसरी भेंट है। इससे पूर्व वह ‘श्री हनुमानाष्टक’
का प्रकाशन करा चुके हैं। अध्यापन के माध्यम से लोक-कल्याण हेतु कटिबद्ध गोविन्द जी
भावना एवं आचरण से अत्यंत विनम्र हैं। उनकी चेतना मानव की संकुचित संकीर्णताओं से निस्संदेह
ऊपर, बहुत ऊपर उठ चुकी है। अहमक फफूंदवी पर किया गया उनका यह कार्य साबित करता है कि
उनका दृष्टिकोण विस्तृत है, सामाजिक संदर्भो में भी, आत्मपरक संदर्भो में भी। तभी तो
अपने साहित्यिक जीवन के प्रायः शैशव काल में ही उनकी प्रज्ञा उन्हें कौमी इंकलाब के
हंगामाखेज शायर जनाब मुस्तफा खाँ ‘मद्दाह’ (अहमक फफूंदवी) की यादें कलमबद्ध करने
के लिए प्रेरित कर सकी।
मेरी दृष्टि में तो
लेखनी की सफलता तथा सिद्धि इसी में है कि वह आदम सभ्यता के उन शीर्षस्थ मुद्दों पर
लिखे जो मानव की संवेदनाओं से भी जुड़े हों और संस्कारों से भी और इन सबसे भी अधिक
महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ‘राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्र धर्म’।
मैंने पूर्व में एक मुक्तक लिखा था यहाँ बड़ा प्रासंगिक लग रहा है।
वीर प्रसू माँ की व्यथायें
कागजों पर लिख सके,
शौर्य साहस की ऋचायें
कागजों पर लिख सके।
कलम ने सिर कलम करवाया
तो केवल इसलिए,
उन शहीदों की कथायें
कागजों पर लिख सके।
जनाब ‘अहमक’,
विचारों की सृष्टि से शहीद क्रांतिकारियों की विरादरी के ही थे। उनके शेरों की बोली
जंगे आज़ादी के उन दीवानों की गोली से कम मारक नहीं थी, न ही उनकी शायरी की धार भारत
माता की आजादी के लिए उठी किसी तलवार की धार से कमतर। उनके फों में चाबुक जैसी मार
थी और कोड़ों जैसी फटकार। कई बार तो वह अदबी उसूलों और बाहर की बंदिशों से बाहर जाकर
भी गोरी सरकारी और समाज के सरमायादारों को डाँट पड़ते थे-
देखिये एक बानगी :
यूँ नहीं मिलने की इन
खूखार कुत्तों से निजात,
शेर बनिये और मैंदाँ
में बिफरना सीखिये।
कृतिकार गोविन्द द्विवेदी
ने लेखन में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि जनाब ‘अहमक फफूंदवी’
के इंकलावी तेवर अधिक से अधिक खूबसूरत अंदाज में पाठक के सामने प्रस्तुत किए जायें।
‘प्रेमचंद के उपन्यासों में दलित चेतना’
-प्रभा
उपन्यास सम्राट मुंशी
प्रेमचंद का कथा जगत् में अवतरण हिंदी की एक युगांतरकारी घटना है। हिंदी की सर्वाधिक
लोकप्रिय विधा कथा साहित्य में प्रेमचंद से एक नए युग का सूत्रपात होता है। प्रेमचंद
जी की उपलब्धि यह थी कि उन्होंने भारतवर्ष के आंचलिक परिवेश की समग्र या सर्वांग अभिव्यक्ति
अपने कथा-साहित्य में पूर्ण संवेदना के साथ की है। उनकी सभी कृतियों में शोषण का प्रतिकार
है, अस्तु उनके उपन्यासों को दलित चेतना के महान दस्तावेज की संज्ञा से अभिहित किया
गया है।
विवेकानंद पी०जी० कॉलेज,
दिबियापुर के हिंदी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष के रूप में कार्यरत डॉ० धर्मेंद्र प्रताप
सिंह द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद के उपन्यासों में दलित चेतना’
नामक कृति को वर्ष 2008 के कुछ विशिष्ट प्रकाशनों में से एक के रूप में स्वीकार किया
जा सकता है। आकार-प्रकार की दृष्टि से कृति बहुपृष्ठीय न होकर मात्र 112 पृष्ठों की
है तथापि चिंतन एवं विचारों की सघन प्रस्तुति ने कृति को सर्वांगपूर्ण बना दिया है।
कृति के सृजनकाल में विद्वान लेखक की दृष्टि में कृति के केंद्रवर्ती कथाकार का वह
स्वरूप विद्यमान रहा है, जिसके कारण उनकी तुलना विश्व के सर्वश्रेष्ठ लेखकों इंग्लैंड
के चार्ल्स डिकिंस, रूस के मौक्सिन गोर्की एवं चीन के लशुन के साथ चतुर्थ लेखक के रूप
में की जाती है। कथाकार के प्रति इस प्रकार की विश्वन्द्य अवधारणा के साथ इस कृति में
कृतिकार ने आस्थावश गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
संपूर्णकृति को आठ अध्यायों
में विभक्त करते हुए – उपन्यास विधा के उद्भव एवं विकास, परिभाषा, उनके विभिन्न प्रकार,
प्रेमचंद कालीन पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियों पर विशदता
के साथ विचार किया गया है। भाव की अभिव्यक्ति के केंद्र में रखते हुए दलित विवेचन,
जातिगत स्तरीकरण, दलितों पर अत्याचार, ब्राह्मणों के दम्भवश दलितों की आत्मरक्षार्थ
सन्नद्धता एवं प्रेमचंद के उपन्यासों में दलित चेतना की विवेचना पर पंचम एवं षष्ठ अध्याय
में कथाकार के उपन्यासों में दलितोद्धार हेतु कृत प्रयासों की प्रकारान्तर से की गयी
सफलता अभिव्यक्ति का प्रयास एवं अष्टम अध्याय में उपसंहार है। उपसंहार के अंतर्गत कथाकार
प्रेमचंद की दलितोद्धार विषयक औपन्यासिक उपलब्धियों का चित्रांकन किया गया है।
शिवकुमार ‘अर्चन’
: उत्तर की तलाश (गीत-संग्रह)
कविता संग्रह : उत्तर
की तलाश
कवि : शिवकुमार ‘अर्चन’
प्रकाशक : प्रथम प्रकाशन,
भोपाल (म०प्र०)
प्रकाशन वर्ष :
2013
मूल्य : 150/-रुपए
काव्य-मंच पर निरंतर
सक्रिय रहने के बावजूद कवि शिवकुमार ‘अर्चन’ ने अपने तथाकथित ‘प्रमाद एवं संकोच
के कारण’ अपना प्रथम गीत-संकलन साठोत्तरीय वय में प्रकाशित किया
है। इससे पूर्व उनका एक गजल-संग्रह अवश्य आ चुका है। गीत-नवगीत के नाम पर अनेक ऊल-जलूल
प्रकाशनों के मध्य जब कोई श्रेष्ठ संकलन पढ़ने को मिलता है तो बबूल-कुंज में सहसा उग
आए पारिजात के पुष्पों की सुगंध- जैसा आभास होता है। ‘उत्तर की तलाश’
नामक इस संग्रह में 55 गीत हैं। अपनी विनम्रता और सौम्यता का परिचय कवि ने इस संग्रह
को उन्हें समर्पित करते हुए दिया है, जो मुझे गीतकार ही नहीं मानते।
संग्रह का प्रारंभिक
गीत ही आत्मपरिचयात्मक रूप से अभिव्यक्त होता है- ‘गीतों के नीलकंठ, उतर रहे सांस पर”।
नीलकंठ एक विहग-मात्र नहीं है। यह महादेव शंकर का स्वरूप है, जिनमें सत्यम, शिवम, सुंदरम
विद्यमान हैं। ‘अर्चन’ की रचनाओं में सौंदर्य के ये तीनों
प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हैं। प्रारंभिक लगभग दस गीतों में वसंत, ग्रीष्म, वर्षा व
हेमंत ऋतुओं के माध्यम से न केवल प्रकृति के विभिन्न रंगों से आकर्षक रंगोली चित्रित
हुई है, बल्कि आंचलिक भाषा का पुट लिए शब्द-संयोजन की उत्कृष्टता भी प्रतिष्ठित हुई
है। “कोहरे की विदा हुई डोली/कोई माथे लगा गया रोली/खाकर कसमें अमराई की, कोयल भी पंचम
में बोली।”
मानव-स्वभाव नैसर्गिक
रूप से आशावादी होता है। बच्चा भी हर वस्तु को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है।
नन्हा-सा बीज भी अपने वृक्ष-स्वरूप की परिकल्पना में हरियाली के प्रति आशांवित रहता
है। मानवीय मनीषा के प्रतिरूप इस भाव का चित्रण ‘बीज हूँ मैं’,
गीत में बड़े ही प्रभावी ढंग से हुआ है- “बीज हूँ मैं, एक नन्हा बीज हूँ/वृक्ष बनने
की प्रबल संभावना मुझमें/मिले मुझको धूप, जल, मिट्टी अगर/मौसमों से प्यार की चिट्ठी
अगर/धूल-मिट्टी ओढ़कर भी जी उलूंगा/छांह, कलरव, नीड़ की प्रस्तावना मुझमें।”
देश के स्वातंत्र्य के बाद हर नागरिक ने सुखद व उज्ज्वल भविष्य की कामना की थी, रंगीन
स्वप्न संजोए थे, लेकिन राजनीति के वर्तमान स्वरूप ने उसकी आंखों के सभी स्वप्न भंग
कर दिए- “स्वराज है, स्वराज है/उनके ही हाथों में, अब सबकी नब्ज है। भूखों को बता रहे,
तुमको तो कब्ज है/भीतर के रोगों का बाहरी इलाज है।” इसी तथ्य को प्रतीकात्मक रूप में वर्षा
ऋतु के माध्यम से भी व्यक्त किया है।
मन की कोमल भावनाओं
की अभिव्यक्ति- पीर पर्वत
-डॉ० शील
पुस्तक : पीर पर्वत
(गीत-संग्रह)
लेखिका : आशा शैली ।
प्रकाशक : आरती प्रकाशन,
नैनीताल
पृष्ठ : 116, मूल्य:
160 रुपए
दस पुस्तकों की रचयिता
आशा शैली का ‘पीर पर्वत’ प्रथम गीत-संग्रह है, जिसमें समय-समय
पर उपजी मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा अनुदान
प्राप्त इस कृति में उनकी 59 छंदबद्ध रचनाएँ हैं, जिनमें गीत, दोहे और गजलें सम्मिलित
हैं। कवयित्री ने अपने अंतर्मन में वर्षों से व्याप्त पीड़ा को ही मुख्य रूप से इन
गीतों का आधार बनाया है, तभी तो वह समर्पण की इन पंक्तियों में कहती हैं- “पोर-पोर
में पीर लेखनी ने/झेली है हर पल/तभी खिली मुस्काई है/गीतों की यह फुलवारी।”
इस गीतमाला के प्रथम
चार गीत- ‘शुभ सभी संचार हैं’, ‘तुम्हें शत नमन’,
‘शारदे वर दे’ तथा ‘गुण तुम्हारे गाएंगे’,
मां शारदे की वंदना में कृतज्ञता प्रकट करते हुए लिखे गए हैं। संग्रह में होली के कुछ
दोहे यहाँ उद्धृत करना चाहूँगी, जिनसे बृज की होली का चित्र सामने चित्रित हो उठता
है- “होली आई री सखी, चलो न बृज की ओर/कान्हा बिछुरे रैन हो, कृष्ण मिले हो भोर”।
“कान्हा होरी खेलते, थिरक रहे सब अंग/कण-कण बृज का नाचता, नचा अजब हुड़दंग”।
“बेसुध गोपी नाचती, सुन मुरली की टेर/कैसे होरी से बचे, कान्हा लेते घेर।”
आशा शैली जी ने देशप्रेम
के प्रति संवेदनाएँ जगाने के लिए गीत लिखे हैं, जैसे- ‘चाहिए आनंद मठ इक और भारत में’,
‘कैसे तेरे काम आऊं?’ ‘मेरी भाग्यविधाता’, ‘विद्रोही स्वर’,
‘सारा जहाँ तुम्हारा है’ और ‘भगत सिंह पैदा कर’।
देश के बिगड़े हालात पर व्यथित हो कवयित्री आहवान करती है- “पथभ्रष्ट बटोही फिरते हैं/अवनति
के बादल पिरते हैं/जयचंद घर-घर में जन्मे हैं/पांचों विकार ही मन में हैं/कोई तो भगत
सिंह पैदा कर/ओ कलमकार ओ यायावर/गीतों में अब तू ज्वाला भर।”
बरखा ऋतु में प्रीतम
से विरह की तड़फन भावपूर्ण तरीके से इन पंक्तियों में प्रकट हुई है- “तपे बदन पर बूंद
पड़े तो/पायल की झंकार लगे/आसमान की कारी बदरी/परदेसी का प्यार लगे।”
(पृष्ठ 36)
बसंत ऋतु मन को किस
तरह आह्लाद से भर देती है, इसकी एक झांकी गीत की इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है- “बंद
करो मत द्वार, बयार बसंती आने दो/मन का आंचल आज, हवाओं में लहराने दो/कोयल कुहुकेगी,
बुलबुल/छेड़ेगी गीत नए/तुम भी गाओ, मुझको भी/सुर आज सजाने दो।”
(पृष्ठ 40, 41) ‘आज लूं संवार’ गीत की पंक्तियों में अद्भुत भावबोध
देखने को मिलता है- “मितवा मुस्काए देखो बंदनवार/सुधि की तितली आई है मन के द्वार/झाड़-पोंछ
फेंक आई जीवन की कुंठा/घर की हर एक दिशा, आज लूं संवार।”
(पृष्ठ 44)
“पिय की पाती’ गीत में अवसादग्रस्त प्रेमिका कहती
है- “पीड़ाओं ने ऐसा धुनका/तार-तार है आंचल मन का/मुझ तक आतेआते खुशियाँ/प्रश्न-चिन्ह
बन जातीं।” (पृष्ठ 89)
समग्रतः ‘पीर पर्वत’
संग्रह में देशप्रेम के साथ-साथ प्रेम और विरह की सूक्ष्म भावनाएँ हैं, जिन्हें कवयित्री
ने दिल की गहराइयों में डूबकर कलमबद्ध किया है। सहज, सरल भाषा और सीधे-सादे शिल्प में
लिखी इन कविताओं का भावपक्ष प्रबल है। कवयित्री ने अभिव्यक्ति के रूप में लाउड हुए
बिना धीमे बहते झरने जैसा सुखद अहसास कराया है क्योंकि ‘पीर पर्वत’
संग्रह में गीत के अतिरिक्त दोहे और गजलें भी शामिल की गई हैं तथा संग्रह की अनेक रचनाएँ
छंद और मात्राओं की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। अतः उस संग्रह को गीत-संग्रह कहने की
अपेक्षा, कविता-संग्रह कहा जाए तो बेहतर होगा। नैनीताल की प्राकृतिक छटा वाले मुख आवरण
सहित संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित
सामाजिक विसंगतियों
का आईना हैं ‘इक्कीस कहानियाँ’
पुस्तक : इक्कीस कहानियाँ
(कहानी-संग्रह)
लेखिका : डॉ० मृदुला
झा
प्रकाशक : मोनिका प्रकाशन,
जयपुर
पृष्ठ : 119, मूल्य
: 250 रुपए
तीन काव्य-संग्रह, दो
कहानी-संग्रह, एक उपन्यास तथा एक यात्रा-प्रसंग की रचयिता डॉ० मृदुला झा की ‘इक्कीस
कहानियाँ सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह है। 119 पृष्ठों में सिमटी इन छोटी-बड़ी इक्कीस
कहानियों में समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की विसंगतियाँ हैं, जो मन को कचोटती
हैं और उद्वेलित भी करती हैं। मध्यमवर्गीय जीवन जीने वाले शहरी और ग्रामीण लोगों के
जीवन से संबंधित देखी-सुनी घटनाओं को ही लेखिका ने सीधे-सीधे इन कहानियों का कथ्य बनाया
है। कथाकार मृदुला ने इन स्थितियों को करीब से अनुभूत करके कहानियों में पिरोया है।
हैरत होती है कि इक्कीसवीं
सदी में भी पुरातन समय से चली आ रही बेमेल-विवाह और छुआछूत की विचारधारा जारी है। कहानी
‘मैयो गे मैयो’ में बेमेल-विवाह और छोटी-छोटी बच्चियों की खरीद-फरोख्त
को उद्घाटित किया गया है। गुजरात की स्थानीय पात्रानुकूल भाषा में लिखी यह कहानी संवेदना
जगाती है कि कैसे चंद रुपयों के एवज में आठ वर्ष की लड़की को 50 साल के अधेड़ के पल्ले
बांध देते हैं। दांपत्य सुख से वंचित, वह बच्ची जिंदगी भर केवल भोग की वस्तु बनकर रह
जाती है। इसी तरह कहानी ‘काया कल्प’ में जात-पात, ऊँच-नीच को दर्शाते हुए
एक दलित महिला की मार्मिक व सजीव कहानी है, जिसमें संदेश दिया गया है कि मानव धर्म
से बढ़कर कोई धर्म नहीं।
नेताओं की संवेदनहीनता
पर कटाक्ष है कहानी ‘बहन जी… गीता मर गई’,
जिसमें माननीय बहन जी के चुनावी दौरे के लिए की गई नाकाबंदी और जिंदाबाद बहन जी के
नारों के बीच प्रेमचंद की गंभीर रूप से बीमार पत्नी समय पर इलाज न मिलने के कारण दम
तोड़ देती है। ‘प्रगति का परचम’ कहानी सरकारी योजना ‘मनरेगा’
के दुरुपयोग तथा ‘करोड़पति बनने का नुस्खा’ नौकरी का झांसा देकर करोड़ों कमाने
वाली बोगस कंपनियों की, कुछ जागरूक लोगों की वजह से पोल खोलने व सचेत करने वाली कहानियाँ
हैं। ‘माता-कुमाता’ में ‘पूत-कपूत भले ही हो जाए, पर माता-कुमाता
नहीं हो सकती’ वाली उक्ति का भावपूर्ण वर्णन हुआ है।
आज के आर्थिकता प्रधान
युग में स्वार्थपरता और घटते प्रेम के कारण पारिवारिक विघटन और वृद्धों की दयनीय हालत,
जैसे ज्वलंत विषयों से संबंधित कहानियाँ हैं- ‘अपर्णा आंटी’,
‘मंदाकिनी’, ‘माता-कुमाता’ तथा ‘अटूट संबंध’,
इनमें विवशता और दर्द का सजीव चित्रण है। नक्सलियों द्वारा सामूहिक नरसंहार में मां-बाप
के मार दिए जाने के बाद जिंदा बची लक्ष्मी की बहादुरी को दर्शाया है, जिसमें वो पुलिस
अधिकारी बनकर अपने मां-बाप की मौत का बदला लेती है।
इस प्रकार मृदुला जी
की विविध विषयक इस संग्रह की कहानियों में कोई न कोई संदेश, आदर्श या चेतावनी मुखरित
हुई है। परिवेश से उद्धृत इन कहानियों की भाषा सहज और सरल है, जिससे कहानियों की प्रवाहमयता
बनी हुई है। बिना किसी कहानीकला के इन कहानियों का भाव-पक्ष उज्ज्वल है, वर्णनात्मक
शैली में लिखी ये कहानियाँ किसी देखी-सुनी घटनाओं का ही विस्तार मालूम पड़ती हैं। कहानियों
में उपस्थित सकारात्मकता की आंच पाठक पर अच्छा प्रभाव छोड़ने में सक्षम है। सुंदर,
आकर्षक आवरण, त्रुटिरहित स्तरीय पुस्तक के प्रकाशन हेतु प्रकाशक महोदय बधाई के पात्र
हैं। मृदुला जी के इस यथार्थ व सामाजिक सोद्देश्यता वाले कहानी-संग्रह का साहित्य जगत
में स्वागत होगा, ऐसी मेरी कामना है।
मानवीय सरोकारों की
संवेदनशील कहानियाँ
-तरुणा
पुस्तक : मेरी प्रिय
कहानियाँ : अंतर्मन की अनुभूतियाँ (कहानी-संग्रह)
रचनाकार : हेमचन्द्र
सकलानी
प्रकाशक : शब्द-संस्कृति
प्रकाशन, देहरादून
पृष्ठ : 76, मूल्यः
100 रुपए
श्री हेमचन्द्र सकलानी
के इससे पूर्व भी यात्रा वृतांत, कहानी व काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वर्ष
2013 में प्रकाशित उनके कथा संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियाँ : अंतर्मन की अनुभूतियाँ’
में उनकी ग्यारह कहानियाँ व दो व्यंग्य संकलित हैं। लेखक ने इन्हें ‘संघर्ष का जीवन
दर्शन’ और ‘स्पर्शों के सच्चे धरातल से स्वतः प्रस्फुटित कहानियाँ’
कहा है। उनकी सभी रचनाएँ जमीन से जुड़ीं, मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करती
हुई व सामाजिक सोद्देश्यपूर्ण कही जा सकती हैं।
सभी कहानियाँ अलग-अलग
मुद्दों पर आधारित हैं। जीवन को संघर्ष के दर्शन रूप में प्रस्तुत करने वाली कहानियां
‘लात को मात’ तथा आत्मकथात्मक ‘अपनी बात’
संदेश देती हैं कि व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति, जिजीविषा, जीवट व मेहनत के बल पर जीवन
में कोई भी लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। वहीं कहानी ‘कमीनी चीज़’
दर्शाती है कि धन से सब कुछ पाया-खरीदा नहीं जा सकता और जीवन में अंततः सुख-शांति व
संतोष के भाव ही सर्वोपरि होते हैं।
मनुष्य के आपसी संबंधों
व सामाजिक रिश्तों का भी सम्यक चित्रण किया गया है। कथा ‘जड़’
में जहाँ अपनी माटी, घर-द्वार से रिश्ता तोड़ सुविधाजीवी बनते लोगों का चित्रण है,
वहीं अपनी जड़ों, संस्कार व संस्कृति से कटने व सूने होते घर-गांव का मार्मिक दर्द
भी है। ‘आरोप प्रत्यारोप’ कहानी में दांपत्य जीवन में परस्पर
विश्वास, समझ, सहनशीलता व धैर्य की महत्ता को दिखाया गया है तो ‘मैं फिर बेटी को ही
जन्म देना चाहूँगी’ शीर्षक वाली कहानी में महिलाओं के
दोहरे मापदंड व कथनी-करनी के अंतर को लड़के-लड़की में भेद द्वारा प्रभावशाली तरीके
से दिखाया गया है। कहानी का सकारात्मक अंत पुत्रमोह से ग्रस्त लोगों की आंखें खोलने
का प्रयास करता है।
संग्रह में प्रकृति
व पर्यावरण के प्रति सचेत करती कहानियाँ भी समावेशित हैं। कहानी ‘कहीं सूख गया पानी’
में भविष्य की बड़ी समस्या की ओर संकेत करते हुए मनोरंजक ढंग से दिखाया गया है कि पानी
की कमी किस तरह परस्पर सौहार्द और आत्मीयता को पी जाती है और जल के अभाव में तन में
ही नहीं मन और भावनाओं में भी शुष्कता आ जाती है। कहानियाँ ‘लौट आओ गोरैया’
और ‘आम का पेड़’ मशीनी एकरस जिंदगी जीने वालों को प्रकृति
की ओर जाने की प्रेरणा देती हैं और बताती हैं कि मनुष्य की जरा-सी संभाल, देखभाल और
प्यार को प्रकृति कई गुना करके लौटाती है।